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________________ मुख्य और गौण पुत्रों की व्याख्या ८८३ साथ दे देते हैं और जो लेनेवाले की जाति का ही होता है। उसे कृत्रिम को संज्ञा मिली है जिसे कोई व्यक्ति अपना पुत्र बनाता है, ऐसे पुत्र की जाति बनाने वाले के समान ही होती है और वह अच्छे एवं बुरे की पहचान करने में दक्ष होता है तथा पुत्र की सभी विशिष्टताओं से युक्त होता है । उसे गूढोत्पन्न या गूढ़ज (बौधायन एवं याज्ञवल्क्य के मत से ) कहा जाता है, जो किसी के घर में जन्म लेता है, किन्तु उसके पिता ( जन्मदाता) का पता नहीं होता; वह उसी का होता है जिसकी पत्नी से वह उत्पन्न होता है। उसे अपविद्ध कहते हैं, जो अपने माता-पिता या उनमें से किसी एक द्वारा त्याग दिया गया है और जिसे कोई अपने पुत्र के समान ही ग्रहण करता है । कानीन पुत्र वह है जिसे अविवाहित (कुमारी) कन्या अपने पिता के घर में गुप्त रूप से जनती है, और जो उसका पुत्र हो जाता है जिसे वह आगे चलकर व्याहती है । सहोढ (वधू अर्थात दुलहिन के साथ प्राप्त) उस स्त्री का पुत्र है जो विवाह के समय गर्भवती रहती है, चाहे यह बात होने वाले पति को ज्ञात हो या अज्ञात हो; यह पुत्र उसका पुत्र कहलाता है जो गर्भवती से विवाह करता है। क्रीत ( खरीदा हुआ पुत्र) वह है जिसे पुत्र बनाने के लिए कोई उसके माता-पिता से खरीदता है, चाहे वह गुणों में समान हो या असमान । पौनर्भव ( पुनविवाहित स्त्री का पुत्र) वह है जिसे अपने पति द्वारा छोड़े जाने या विधवा हो जाने पर कोई स्त्री स्वेच्छा से किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करने के उपरान्त जनती है । स्वयंदत्त ( अपने से दिया गया पुत्र ) वह है जो अपने माता-पिता के नष्ट हो जाने पर या उनके द्वारा व्यक्त होने पर स्वयं अपने को किसी को दे देता है । वह पुत्र, जो किसी ब्राह्मण द्वारा विषयासक्त होने पर किसी शूद्रा पत्नी से उत्पन्न किया जाता है, पारशव ( या शौद्र) कहलाता है, क्योंकि वह जीवित रहते भी शव के समान है । ऊपर वर्णित बारह या तेरह प्रकार के पुत्रों की लम्बी सूची देखकर बहुत से विद्वानों ने इतने पुत्त्रों की आवश्यकता एवं मूल के विषय में बहुत से अनाप-सनाप एवं अयथार्थ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। डॉ० जॉली का कथन है कि भारतीय कुल-व्यवहार में यह एक अत्यन्त अनोखी बात है कि बारह प्रकार के पुत्रों को मान्यता मिली है, जिनमें कुछ तो माता के अवैध संसर्ग के परिणाम हैं और पिता के रक्त सम्बन्ध से उनका कोई नाता नहीं है। इसके कारण के मूल है पुत्र प्राप्ति के प्रति असामान्य महत्ता प्रदर्शन, क्योंकि स्मृतियों ने पितृ श्राद्ध को महत्ता दी है और वह भी पुत्र द्वारा सम्पादित होने पर; तथापि आरम्भ में इस महत्ता के प्रति आर्थिक पहलू एक बड़ा तत्व था, अर्थात् कुल के लिए, जहाँ तक सम्भव हो सके, अधिक से अधिक शक्तिशाली कार्यकर्ताओं की प्राप्ति की जा सके। विद्वान् लेखक के कहने का तात्पर्य तो यह हुआ कि मानो स्मृतियों ने सभी प्रकार के गौणपुत्रों को आध्यात्मिक कल्याण का माध्यम माना है, और मानो एक व्यक्ति सभी प्रकार के पुत्रों को या अधिकांश को पुत्र के समान अपने यहाँ रख छोड़ता है । डा० जॉली दोनों बातों में त्रुटिपूर्ण हैं । पुत्रिकापुत्र, क्षेत्रज एवं दत्तक पुत्रों की परिभाषा से ही यह व्यक्त है, जैसा कि बहुत-सी स्मृतियों ने ऐसा कहा है, ६८ कि जिसे औरस पुत्र, पौत्र या प्रपीत हो वह पुत्रिकापुत्र, क्षेत्रज पुत्र या दत्तक पुत्र नहीं रख सकता । यदि बारहों या तेरहों प्रकार के पुत्रों का भली-भाँति विश्लेषण किया जाय तो पता चलेगा कि प्राचीन लेखकों नं परिस्थितियों के बहुत कम अन्तर के आधार पर किये जानेवाले विभाजनों एवं उपविभाजनों के लिए ही यह लम्बी ६८. अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम् । मनु ( ६ । १२७); पितोत्सृजेत्पुत्रिका मनपत्योग्नि प्रजापति चेष्ट्वास्मदर्थमपत्यमिति संवाद्य । गौतम ( २८।१६ ) ; देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ नियुक्तया । प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये ॥ मनु ( ६ । ५६ ) ; अपुत्रणैव कर्तव्यः पुत्र प्रतिनिधिः सदा । पिण्डोवक क्रियाहेतोर्यस्मातृतस्मात्प्रयत्नतः ॥ अत्रि ( ५२, दत्तकमीमांसा पृ० ३ एवं दत्तकचन्द्रिका पृ० २ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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