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धर्मशास्त्र का इतिहास
पुत्रिकापुत्र को उनके साथ नहीं गिनाया है, यद्यपि उन्होंने अन्यत्र ( ६ । १२७ एवं १३४) पुत्रिका नाम दिया है और उसे पुत्र के बराबर कहा है । इसी से बृहस्पति ने कहा है कि मनु द्वारा उल्लिखित १३ पुत्रों में औरस एवं पुत्रिका (पुत्र के समान ग्रहण की गयी पुत्री) को कुल चलानेवाले की संज्ञा मिली है । वसिष्ठ ( १७।१२ ) ने बलपूर्वक कहा है कि प्राचीन ऋषियों ने केवल १२ पुत्र ही माने हैं और यह सत्य है कि प्राचीन लेखकों में अधिकांश नं १२ संख्या ही गिनायी है । ( द्वादश इत्येव पुत्राः पुराणदृष्टाः ) । गौतम की व्याख्या करते हुए हरदत्त ने तथा दत्तकमीमांसा ने पुत्रों के १५ प्रकार दिये हैं । ६६ पन्द्रह की यह संख्या पुत्रिका (पुन के समान नियुक्त कन्या) एवं पुत्रिकापुत्र ( नियुक्त कन्या का पुत्र) दोनों को अलग-अलग लेकर पूर्ण हुई है। इसी प्रकार क्षेत्रज को भी दो भागों में बाँटा गया है; गर्भदाता का पुत्र एवं पत्नी ( पत्नी के पति का ) का पुत्र, तथा ऐसा पुत्र जो कहीं भी उत्पन्न किया गया है यह १५वाँ तथा अन्तिम है । पराशरस्मृति (४।२३-२४) ने कुण्ड एवं गोलक के अतिरिक्त केवल पाँच पुत्रों की चर्चा की है ।
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आगे कुछ लिखने के पूर्व मनु एवं अन्य लेखकों द्वारा दिये गये बारह या तेरह पुत्रों की परिभाषा देना आवश्यक है । और तो समान जाति की अपनी पत्नी से उत्पन्न पुत्र है। पुत्रिकापुत्र ६७ दो प्रकार का है; ( १ ) कोई पुत्रहीन व्यक्ति अपनी पुत्री को पुत्र के समान नियुक्त कर सकता है ( वह पुत्रिका कही जाती है और पुत्र के समान मानी जाती है); (२) या वह किसी अन्य को यह कहकर दी जाती है कि 'मैं इस भ्रातृहीन कन्या को आभूषणों से अलंकृत कर तुमसे ब्याहता हूँ, इससे उत्पन्न पुत्र मेरा होगा।' इस स्थिति में दी गयी कन्या का पुत्र, अपने नाना का पुत्र हो जाता है। क्षेत्रज ( पत्नी का पुत्र) वह है, जो किसी की पत्नी ( या विधवा) से किसी सगोत्र द्वारा या जो सगोन न हो उससे, नियोग नियम के अनुसार, जब कि व्यक्ति (पति) या तो मर गया है या क्लीब (नपुंसक ) है या किसी असाध्य रोग से पीड़ित है, उत्पन्न किया जाता है । वह पुत्र दत्तक या कृत्रिम कहलाता हैं, जिसे माता या पिता विपत्ति-काल में या स्नेहवश जल के
६६. औरसः पुत्रिका बीजिक्षेत्रजौ पुत्रिकासुतः । पौनर्भवश्च कानीनः सहोढो गूढसम्भवः । दत्तः क्रीतः स्वयं दत्तः कृत्रिमश्चापविद्धकः । यत्र क्वचोत्पादितश्च पुत्राख्या दश पञ्च च ॥ स्मृति ( हरवत्त द्वारा गौतम २८१३२ की टीका में तथा दत्तकमीमांसा पृ० ६८ उद्धत ) । ' वीजिक्षेत्रज' में बोजिज एवं क्षेत्रज दोनों सम्मिलित हैं। बीजी उसे कहते हैं जो नियोग-प्रथा के अनुसार पुत्र उत्पन्न करने के लिए नियुक्त किया जाता है, उसी के पुत्र को, बीजज कहते हैं, कुछ लोग उसे बीजी एवं पति-पत्नी दोनों दलों का पुत्र कहते हैं। ऐसा ही मनु ( ६१५१-५३), गौतम (४३) का कथन है । डा० जॉली ( टैगोर लॉ लेक्चर्स) ने बोजिज को दूसरे व्यक्ति की पत्नी से उत्पन्न माना है, किन्तु यह अर्थ त्रुटिपूर्ण है । और देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय १३, जहाँ बोजी, क्षेत्र (अर्थात् पत्नी) एवं क्षेत्रिक का वर्णन है । तद्वत् परस्त्रियाः पुत्रौ द्वौ सुतौ कुण्डगोलको । पत्यौ जीवति कुण्डः स्यान्मृते भर्तरि गोलकः ॥ औरसः क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिमकः सुतः । दद्यान्माता पिता वापि स पुत्रो वत्तको भवेत् ॥ पराशर (४१२३-२४) । लघु-आश्वलायन ( २१।१४-१५) का कथन हैं कि यद्यपि कुछ ऋषियों के मत से कुण्ड एवं गोलक के संस्कार किये जाते हैं, किन्तु ऐसा प्राचीन युगों में होता था, अब कलियुग में यह वर्जित है ।
६७. पुत्रिकासुतो द्वेधा । तत्राद्यमाह वसिष्ठः ( १७/१७ ) -- अभ्रातृकां प्रदास्यामि तुभ्यं कन्यामलंकृताम् । अस्यां यो जायते पुत्रः स मे पुत्रो भविष्यति ॥ इति । अन्त्यमाह स एव तृतीयः पुत्रिकेष - - इति । अस्मिन्पक्षे कन्यiव पितुरौर्ध्वदेहिकादि कार्यम् । व्य० मयूख ( पृ० १०७ ) | ऊपर प्रथम अर्थ में पुत्रिकापुत्र को "पुत्रिका एव पुत्रः " ( कर्मधारय समास ) और दूसरे अर्थ में "पुत्रिकायाः पुत्रः " ( तत्पुरुष समास ) कहा गया है। यही बात मिताक्षरा (याज्ञ० २।१२८) ने भी कही है।
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