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________________ ८८० धर्मशास्त्र का इतिहास का कथन है--"पितृ गण हृदय मे विचार करके अपने लिए ही पुत्रों की अभिकांक्षा करते हैं; वह मुझे छोटे एवं बड़े (कर्ज एवं पितृ-) ऋणों से स्वतन्त्र करेगा।" कात्यायन (५५१) न भी ऐसा ही कहा है । ६३ अधिकांश प्राचीन स्मृतिकारों ने औरस पुत्र के अतिरिक्त ११ या १२ गौणपुत्रों का उल्लेख किया है । आपस्तम्ब ने औरस के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के पुत्र को मान्यता नहीं दी है । आपस्तम्ब ने एक प्राचीन ऋपि औपबंध नि के कथन को उद्धृत कर कहा है कि पहले भी केवल औरस को ही मान्यता दी गयी थी (बौधायन ने भी इस ऋषि का उल्लेख किया है) । आपस्तम्ब (२।५।१३।१०) ने बलपूर्वक कहा है कि पुत्र का वास्तबिक दान या क्रय नहीं हो सकता (दानं क्रयधर्मश्चापत्यस्यन विद्यते) । किन्तु आपस्तम्ब को क्षेत्रज पुत्रों के विषय में जानकारी थी और उन्होंने इमे वजित किया है। एक स्थान पर आपस्तम्ब (२।६।१३।१-५) में आया है--"जो पत्र, ऐसे व्यक्ति द्वारा उत्पन्न हैं, जो उचित ऋतु में अपनी ही जाति की स्त्री के पास जाता है (जो दूसरे की पत्नी नहीं है) जिससे शास्त्रविहित विवाह हुआ है, वे अपनी जाति के कर्मों को करते हैं और रिक्थाधिकार पाते हैं; यदि कोई व्यक्ति ऐसी स्त्री से संभोग करता है जिसका विवाह दूसरे से पहले हो चुका है या जिससे शास्त्रानुकूल विवाह नहीं हुआ है या जो दूसरी जाति की है, तो दोनों पाप करते हैं और उनसे उत्पन्न पुन भी दोषी हो जाता है।६४आगे आपस्तम्ब (२।१०।२७।२-६) ने नियोग की निन्दा की है-- "पति (ग उसके श्रेष्ठ लोगों) को सगोत्रपत्नी दूसरे (जो सगोत्र नहीं हैं) के लिए नहीं देनी चाहिए। ऐसा घोषित है कि वधू कुल को दी जाती है (पति के कुल को न कि केवल पति को) किन्तु मनुष्य की इन्द्रिय-दुर्बलता के कारण ऐसा व्यवहार करना अब वर्जित है। सगोत्र का हाथ भी (कानून के अनुसार) दूसरे का कहा जाता है, यहाँ तक कि (पति के अतिरिक्त) किसी दूसरे व्यक्ति का (हाथ ) भी वैसा ही है । यदि विवाह-शपथ का व्यतिक्रम हो तो दोनों नरक में पड़ते हैं।" गौतम (२८।३०-३१), बौधा० (२।२।१४-३७), वसिष्ठ० (१७।१२-३८), अर्थशास्त्र (३७), शंखलिखित (व्य० र० पृ० ५४७), हारीत (व्य० २० ५४६), मनु (६१५८-१६०), याज्ञः (२।१२८-१३२), नारद (दायभाग, ४५-४६), कात्या० (व्य० नि० पृ० ४३४-४३५), बृहस्पति, देवल (हरदत्त, गौ ० २८।३२; दायभाग १०१७-८, पृ० १४७; व्य० २० पृ० ५५०), विष्णु (१५॥१-३०), महाभारत (आदिपर्व १२०।३१-३४), ब्रह्म पराण (अपरार्क प० ७३७), यम (व्य० र०प० १४७) ने विभिन्न प्रकार के पत्रों की तालिका विभिन्न अनक्रमों एवं विभिन्न नामों के साथ दी है । मनुस्मृति के आधार पर निम्नलिखित तालिका पुत्रों की संख्या, कोटि एवं महत्ता पर प्रकाश डालती है।६५ ६३. इच्छन्ति पितरः पत्रान स्वार्थहेतोर्यतस्ततः । उत्तमधिमणेभ्यो मामयं मोचयिष्यति ।। नारद (ऋणादान, ५) । और देखिये द्रोणपर्व (१७३।५४); विवादताण्डव (कसलाकर); पितृणां सूनुभिर्जातर्दानेनैवाधमादृणात् । विमोक्षस्तु यतस्तस्मादिच्छन्ति पितरः सुतान् ।। कात्या० (स्मतिचन्द्रिका २, पृ० १६८; पारा० मा० ३, पृ० २६३)। ६४. सवपूर्वशास्त्रविहितायां यथर्तुं गच्छतः पुत्रास्तेषां कर्मभिः सम्बन्धः । दायेन पूर्ववत्यामसस्कृताया वर्णान्तरे च मैथुने दोषः । तत्रापि दोषवान्पुत्र एव । आप० ध० सू० (२।६।१३।१-४); सगोत्रस्थानीयां न परेभ्यः समाचक्षीत । कुलाय हि स्त्री प्रदीयत इत्युपदिशन्ति । तदिन्द्रियदौर्बल्याद्विप्रतिपन्नम । अविशिष्टं हि परत्वं पाणः । तव्यतिक्कने खलु पुनरुनयोर्नरकः । आप० ध.. सू० (२।१०।२७-२-६) । ६५. आदिपर्व (१२७॥३३) में औरस को स्वयंजात कहा गया है । सम्भवतः आदिपर्व में आये हुए प्रणीत, परिक्रीत एवं स्वैरिणीपुत्र कम से पुत्रिकापुत्र, क्षेत्रज एवं गूढ़ ज हैं । स्वयंजातः प्रणीतश्व रिकीतश्च यः सुतः । पौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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