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पुत्र होने की भावना
ទី១៖
ऋग्वेदीय वचन उद्धृत किया है--"तू सभी अंगों से जन्मा है, (पिता के) हृदय से, तू किसी का पुत्रसंज्ञक अपनी आत्मा है; तू सैकड़ों शरदों (अर्थात् वर्षों तक) जीवित रह ।"५६ क्रमशः भावना उठी (सम्भवत: व्युत्पत्तिकारों द्वारा) कि पुत्र 'पुत्' नामक नरक से पिता को बचाता है, जैसा कि मन (६३।१३८ = आदिपर्व २२६।१४ = विष्णु १५२४४) ने कहा है। प्राचीन ग्रन्थों में पून का पित-श्राद्ध से सम्बन्धित पिण्डदान के साथ कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं ज्ञात होता। उन ग्रन्थों में इसकी महत्ता की विशेष चर्चा नहीं है । किन्तु सूत्रों एवं मनु आदि स्मृतियों में पिण्डदान से उत्पन्न उपयोगिता की ओर विशेष रूप से संकेत मिलता है । मनु (६।१३६) ने पुनि कापुन के विषय में लिखते हुए घोषित किया है"उसे (अपने मातामह को) पिण्ड देना चाहिये और उसकी सम्पत्ति लेनी चाहिये । पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र पितरों को पिण्ड देते हैं अतः उन्हें अत्यधिक प्रशंसा मिलती है।" मनु (६।१३६) ने कहा है----"पुन (के जन्म) से मनुष्य उच्च लोकों को प्राप्ति करता है, पौत्रों द्वारा (उन लोकों में) अनन्तता (अमरता) प्राप्त करता है, पुत्र के पौत्रों से सूर्यलोक को विजय करता है।"६१विष्णुधर्मसूत्र (८५।६७) ने घोषित किया है--"मनुष्य को (इस विचार से) बहुत-से पुत्रों की कामना करनी चाहिये कि उनमें से कोई गया जायगा या अश्वमेध करेगा या (अपने पिता के सम्मान में) काला बैल छोड़ेगा।"६२बृहस्पति (परा० मा० १२, १० ३०५) का कथन है--"नरक में गिरने के भय से पितर लोग पुत्रों की आकांक्षा करते हैं; (वे सोचते हैं कि) जनमें कोई गया जायगा,उनमें कोई उन्हें बचायेगा, कोई बैल छोड़ेगा, कोई यज्ञों को सम्पादित करेगा , जन-कल्याण के कार्य (यथा तालाब, मन्दिर, वाटिका) करेगा, बुढ़ौती में उनकी सहायता करेगा और अनुदिन श्राद करेगा।" मत्स्यपुराण (२०४।३-१७) में पितृगाथा नामक पद्य आये हैं जिनमें मृत पूर्वजों की इच्छाएँ व्यक्त हैं, यथा-उनके वंशज पवित्र जलों में तर्पण करेंगे, श्राद्ध-कर्म में लीन होंगे, गया जायेंगे, भांति-भांति के दान करेंग, यथा--तालाब, मन्दिर आदि का निर्माण आदि ।
उपर्युक्त विवेचनों से ऐसा नहीं समझना चाहिये कि पुत्र की आकांक्षा के भीतर शुद्ध लौकिक कल्याण की भावनाएं नहीं थीं। लोगों में ऐसी भावनाएँ थीं, किन्तु वे पुत्रों से उत्पन्न आध्यात्मिक एवं धार्मिक कल्याणों से सम्बन्धित अतिशय विचारों की बाढ़ मे डूब-सी गयी थीं। उदाहरणार्थ, बृहदारण्यकोपनिषद् (१।।१६) ने मनुष्यों, पितरों एवं देवों
के लोकों की चर्चा के उपरान्त घोषित किया है कि मनुष्यों के लोक पर पुत्र द्वारा ही विजय प्राप्त होती है (१३५१७ में पुत्र की स्तुति की गयी है और उसे उपदेश दिया गया है कि वह ब्रह्म है, यज्ञ है और है देवी लोक) । नारद (४१५)
५६. तदेतदृक्श्लोकाभ्यामभ्युक्तम् । अङ्गारङ्गात् संभवसिहरयादधिजायसे । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ निरुक्त (४॥३)।
६०. बौधायनगृह्मपरिभाषा (१।२।५) में उद्धत है--"पुदिति नरकस्याच्या दुःखं च नरकं विदः । पुदि त्राणात्ततः पुत्रमिहेच्छन्ति परत्र च ॥" शंख-लिखित (वि० र० पृ० ५५५) का कहना है--आत्मा पुत्र इति प्रोक्तः पितुर्मातुरनुग्रहात् । पुन्नाम्नस्त्रायते यस्मात्पुत्त्रस्तेनासि संजितः ॥
६१. पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रणानन्त्यमश्नुते । अथ पुत्रस्य पौत्रेण वध्नस्याप्नोति विष्टपम् ॥ मनु (६1१३७) । यह वसिष्ठ० (१७४५) एवं बौधायन० (२।६७), विष्णु ० (१५४६) में भी पाया जाता है।
६२. एष्टव्या बहवः पुत्रा योकोपि गयां व्रजेत् । यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ॥ विष्णु० (८५।६७ = मत्स्यपुराण २२।६= वायुपुराण १५०।१० = ब्रह्मपुराण २२०।३२-३३ । मिलाइये अत्रिस्मृति (५५); कांक्षन्ति पितरः पुत्रानरकापातभीरवः । गयां यास्यति यः कश्चित्सोस्मान्सन्तारयिष्यति ॥ करिष्यति वृषोत्सर्गमिष्टापूर्त तथैव च । पालयिष्यति वृद्धत्वे श्राद्धं दास्यति चान्वहम् ॥ बहस्पति (परा० मा० १।२, पृ० ३०५) ।
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