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________________ ८७८ धर्मशास्त्र का इतिहास जायेंगे। बृहस्पति का कथन है कि जहां साक्षी न हों और न लेख-प्रमाण हों वहाँ विभाजन के विषय में निष्कर्ष अनुमान से निकालना चाहिये। पिता या पितामह की स्वार्जित सम्पत्ति के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। मिताक्षरा के सिद्धान्त के अनुसार पुत्र का जन्मकाल से ही पिता को स्वाजित सम्पति पर अधिकार हो जाता है, किन्तु उसे यह अधिकार नहीं है कि वह पिता को अपना धन घटाने-बढ़ाने से रोके, किन्तु वह ऐसा करने के लिए पिता को अनुमति दे सकता है । रिता द्वारा अजित अचल सम्पत्ति एवं पशु बिना पुत्रों की सहमति के हटाये-बढ़ाये या दान नहीं किये जा सकते। जो जन्म ले चुके हैं, जो अभी नहीं जन्मे हैं या जो अभी माता के गर्भ में हैं वे सभी जीविका पा सकते हैं, अतः दान या विक्रय नहीं हो सकता । किन्तु ये बातें जिन्हें मिताक्षरा ने दो स्मृतियों से उदृत किया है, मिताक्षरा एवं दायभाग द्वारा केवल कम या अधिक उपदेशात्मक रूप में ही कही गयी हैं। यदि पिता बिना पुत्रों की सहमति के स्वाजित सम्पत्ति का लेनदेन करता है, तो यह स्मृति-विरुद्ध कहा जायगा, किन्तु वैमा करना अवैधानिक नहीं है, क्योंकि कोई तथ्य सैकड़ों वचनों से परिवर्तित नहीं किया जा सकता। ऐसी बात नहीं है कि सर्वप्रथम मिताक्षरा ने ही स्वाजिन धन के इस अधिकार की घोषणा की है। शताब्दियों पूर्व विष्णुधर्मसूत्र (१७१) ने ऐसा कहा था कि पिता स्वाजित धन को इच्छानुसार बाँट सकता है । कात्यायन (३६) ने कहा है कि पुत्र का पिता के स्वाजित धन पर स्वामित्व नहीं है। जब याज्ञ० (२॥ १४) पिता को ज्येष्ठ पुत्र के लिए विशिष्ट भाग या पुत्रों में समान भाग देने को अनुमति देते हैं तो इसको मिताक्षरा ने केवल पिता की स्वाजित सम्पत्ति से ही सम्बन्धित माना है। और देखिये नारद (दायभाग, १२) तथा शंख-लिखित । जब मनु (1१-४) ऐसा कहते हैं कि पुत्रों को माता-पिता के रहते सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं है तो इसका संकेत पिता-माता की स्वाजित सम्पत्ति की ओर है। श्री किशोरीलाल सरकार ने टैगोर व्याख्यान-माला में ऐसा कहा है कि मिताक्षरा पर बौद्ध प्रभाव है। किन्तु उन्होंने अपनी इस उक्ति के लिए कोई समर्थ प्रमाण नहीं दिया है । उनके तर्क सर्वथा आत्मगत हैं और किसी प्राचीन या मध्यकालिक स्मृति-वचन पर आधारित नहीं हैं। ऐसा लगता है कि पुत्र का विभाजन-सम्बन्धी अधिकार, उसकी पिता के साथ समानता, व्यक्ति का स्वाजित धन पर पूर्ण अधिकार आदि मान्यताएं क्रमश: विकसित होती आयी हैं और उनका बौद्ध विचार से कोई सम्बन्ध नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्धों के पास कोई व्यवहार-सम्बन्धी स्वतन्त्र विचार नहीं थे । मध्यकाल में बरमा-जैसे वौद्ध देशों के समक्ष मन के ही व्यवहार, नियम आदि उदाहरणस्वरूप थे। इस विषय में हमने इस अध्याय के आरम्भ में ही विवेचन कर लिया है। विभिन्न प्रकार के पुत्र ; मुख्य एवं गौण पुत्र इस ग्रन्थ के भाग २, अध्याय ६ में हमने ऋग्वेद, तैत्तिरीय संहिता, अतपय ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, मत्रों एवं स्मृतियों की उन उक्तियों का विवेचन किया है जो पुत्रोत्पत्ति के आध्यात्मिक पहलू एवं कल्याण पर प्रकाश डालती हैं । ऐतरेय ब्राह्मण (३३।१) में पुत्रोत्पत्ति से साध्य प्रमुख उपयोगों पर प्रकाश डाला गया है, यथा--पित-ऋण से मुक्ति, अमृतत्व की प्राप्ति एवं दिव्य लोकों की प्राप्ति । अति प्राचीन काल में इन्हीं प्रमुख उपयोगों के लिए पुत्र की कामना की जाती थी मनु (६।१०६-१०७) एवं याज्ञ० (१।७८) ने भी इन कल्याणप्रद उपयोगों की चर्चा को है। पूनोत्पत्ति की इच्छा का तात्पर्य था कल को आगे लेते जाना और उसे अविच्छेद्य बनाना ('वंशस्य अविच्छेदः',मिताक्षरा की उक्ति) एवं धार्मिक संस्कार विधियां एवं अग्निहोत्र आदि करते जाना एवं उनकी रक्षा करना। प्राचीन समाज में अधिकांशतः सभी स्थानों में, यह इच्छा बलवती रही है शतपथब्राह्मण (१२।४।३।१) का कथन है-"पिता आगे चलकर (वृद्धावस्था में) पुत्र पर निर्भर रहता है और पुत्र आरम्भिक जीवन में पिता पर।" निरुक्त (३।४) ने एक Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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