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विदेशागत दायाद एवं उदघाटित द्रव्य के लिए पविभाजन
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के आधार पर ही भागानुसार उसका विभाजन होता है। ऐसी स्थिति में पुनर्विभाजन नहीं होता, प्रत्युत एक दूसरा विभाजन होता है (मनु ६।२१८; याज्ञ ० २।१२६; कौटिल्य ३।५ एवं कात्या० ८८५-८६) । कात्यायन का कथन है-- "यदि सयुक्त धन गुप्त रह गया हो, किन्तु कालान्तर में उसका पता चल जाय तो पिता के न रहने पर भी पुत्र लोग उसे अपने बीच बराबर-बराबर बाँट ले सकते हैं।" भृगु कहते हैं--"जो कुछ एक दूसरे से (सहभागियों से) छिपा रह गया हो या जो कुछ अन्यायपूर्वक विभाजित हुआ हो तथा जो कुछ (ऋण आदि) फिर से बिना विभाजित हुए प्राप्त हो उसे बराबर-बराबर बाँट लेना चाहिये।"
ऐतरेय ब्राह्मण (६७) में आया है--"जो किसी को अपना भाग पाने से वंचित करता है उसे वह (वंचित व्यक्ति) दण्ड देता है (नष्ट करता है)। यदि वह (वंचित होनेवाला) उसे नहीं दण्डित करता (नष्ट करता) तो वह उसके पुत्र या पौत्र को दण्डित करता है; किन्तु वह उसे दण्डित अवश्य करता है।"५८ मनु (६।२१३) के मत से यदि ज्येष्ठ भ्राता लोभवश छोटे भाइयों को उनके भाग से वंचित करता है, तो उसे उसका विशिष्ट भाग नहीं मिलता और वह राजा द्वारा दण्डित होता है। इन कथनों से पता चलता है कि संयुक्त सम्पत्ति को छिपाना या किसी का भाग मारना गर्हित समझा गया है। किन्तु इस विषय में टीकाकारों एवं निबन्धकारों में मतैक्य नहीं हैं । जब कोई संयुक्त सम्पत्ति को विभाजन के समय छिपा लेता है तो यह दुष्कर्म है या नहीं ? जो वह छिपाता है उसका कुछ भाग तो उसका है ही। दायभाग (१३।८) का कथन है कि यहाँ यह चोरी नहीं है, क्योंकि चोर तो जान-बूझकर दूसरे की सम्पत्ति अपनी बनाता है और यहां संयुक्त सदस्य संयुक्त सम्पत्ति का स्वामी नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता । दायभाग (१३।११-१२) ने लिखा है कि विश्वरूप एवं जितेन्द्रिय का मत भी ऐसा ही है, यदि ऐसा कार्य चोरी कहा भी जाय तो यह पाप नहीं है, क्योंकि स्मृतियों ने आगे चलकर विभाजन कर देने की अनुमति दे ही दी है । विवादरत्नाकर (पृ० ५२६) के मत से हलायुध ने भी ऐसे कार्य को चोरी के समान पापमय नहीं माना है किन्तु मिताक्षरा, अपरार्क (पृ० ७३२), व्यवहारप्रकाश (१० ५५५) ने मनु (६।२१३) एवं ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार इसे चोरी के समान ही परिगणित किया है। और देखिये जैमिनि (६।३।२०), मिता० (याज्ञ० २।१२६), दायभाग (१३।१६, पृ० २२७-२२८), कात्यायन (८४२) एवं बृहस्पति (स्मृतिच०, पृ० २७३, वि० र० पृ० ४६८)। .
विभाजन हुआ है या नहीं इस विषय में जानकारी के लिए याज्ञ० (२।१४६) ने बन्धु-बान्धओं, मामा तथा अन्य साक्षियों की गवाहियों, लेख-प्रमाण, पृथक् हुई भूमियों या घरों को प्रमाणों के रूप में माना है । नारद (दायभाग, ३६-४१) ने इनके अतिरिक्त पृथक्-पृथक रूप से किये जाते हुए धार्मिक कृत्यों को भी प्रमाण माना है। ऋणों का आदान-प्रदान, पशु, भोजन, खेत, नौकर, भोजन-पान, आय-व्यय का ब्यौरा आदि भी प्रमाण हैं। केवल विभाजित व्यक्ति ही एक-दूसरे के साक्षी, प्रतिभ, ऋणदाता आदि हो सकते हैं । याज्ञ० (२०५२) ने भी कहा है कि भाइयों, पति-पत्नी, पिता-पुत्र के बीच, जब तक वे अविभाजित हैं, कोई भी एक-दूसरे का साक्षी, ऋण लेनेवाला या देनेवाला, प्रतिभू नहीं हो सकता । नारद (दायभाग ४१) एवं कात्यायन (८६३) का कथन है कि दस वर्षों के उपरान्त ही । संयुक्त परिवार से अलग होने पर) सदस्य-गण एक-दूसरे से, जहाँ तक संयुक्त सम्पत्ति का प्रश्न है, अलग समझे
५८. यो वै भागिनं भागान दते चयते वैन स यदि वैनं न चयतेऽथ पुत्रमथ पौत्रं चयते त्वेवैनमिति । ऐ० प्रा० (६७)। इसे मिता० (याज्ञ० २।१२६) एवं व्य० म० (पृ० १३१) ने गौतम का वचन माना है । परा० मा० (३ पृ० ५६६), स० विलास (पृ० ४३८) एवं व्य० प्र० (पृ० ५५५) ने इसे सम्यक रूप से श्रुतिवचन माना है।
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