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धर्मशास्त्र का इतिहास है । नब ख, अपना भाग, जो एक-चौथाई का एक-तिहाई भाग (एक-बारहवाँ भाग) है, पाता है और अलग हो जाता है, किन्तु शेष लोग अभी संयुक्त ही रहते हैं । इसके उपरान्त ग मर जाता है और क्रमश: घ, ङ एवं ख, भी मर जाते हैं । ऐसी स्थिति में ख, व्यक्ति ग, एवं घ, से भाग लेने के लिए मुकदमा करता है। यहाँ भी वही नियम लागू होगा। जो सम्पत्ति ख, की मृत्यु के उपरान्त बची वह तीन भागों में बंटेगी और ख, , ग, एवं घ, में प्रत्येक को (जो ख, ग, घ के उत्तराधिकारी हैं) उस सम्पत्ति का एक-तिहाई प्राप्त होगा।
मनु (६४७) ने बलपूर्वक कहा है--"विभाजन एक बार होता है, कन्या एक बार दी जाती है (उसका विवाह एक बार होता है), एक ही बार कोई ऐसा कहता है 'मैं यह दान करूंगा'--अच्छे लोग ये तीनों एक ही बार करते हैं।" इसका तात्पर्य यह है कि एक बार का किया गया विभाजन अन्तिम होता है, साधारणतः वह दुबारा नहीं उभाड़ा जाता।५५ किन्तु इस नियम के अपवाद भी हैं । विभाजन के उपरान्त पुनोत्पत्ति पर पुनविभाजन होता है। बृहस्पति का कथन है; जब कोई अपना देश छोडकर अन्यत्र चला जाता है तो जब उसका उत्तराधिकारी पुनः अपने देश लौट आये तो उसे उसका भाग अवश्य मिलना चाहिये। चाहे वह (उत्तराधिकारो) तीसरी या पांचवीं या सातवीं पीढ़ी (जिसने देश छोड़ दिया था उससे आगे की) का हो, यदि उसका जन्म एवं कुल निश्चित रूप से ज्ञात हो जाय तो उसे रिक्थाधिकार मिल जाता है। जिन्हें मौल एवं पड़ोसी लोग सहभागी के रूप में जानते हैं, यदि वे विभाजन के उपरान्त आकर अपना भाग माँगे तो उन्हें गोत्रजों से पैतृक सम्पत्ति या भूमि का भाग मिल जाता है ।५६ व्यवहाररत्नाकर का कथन है कि देवल का यह नियम कि चौथी पीढ़ी तक ही भाग मिलता है, केवल उन लोगों के लिए लागू होता है, जो एक ही स्थान या देश में निवास करते हैं, किन्तु बृहस्पति का यह नियम कि दायभाग सातवीं पीढ़ी तक भी मिल सकता है, उन लोगों के लिए है जो किसी दूसरे देश में चले गये हैं । बृहस्पति के ये नियम प्रकट करते हैं कि एक बड़ी लम्बी अवधि के उपरान्त भी कोई उत्तराधिकारी संयुक्त कुल-सम्पत्ति के भाग का अधिकारी हो सकता है।
__एक दूसरा नियम यह है कि यदि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का कोई भाग छल से छिपा रह गया हो और आग चलकर उसका पता चल जाय या भ्रम या संयोगवश कोई भाग विभाजित होने से बच गया हो, तो प्रथम विभाजन
५५. सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते । सकृदाह ददामोति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥ मनु (६।४७)। और देखिये नारद (स्त्री (सयोग २८) एवं वनपर्व (२६४।२६)।
५६. गोत्रसाधारणं त्यक्त्वा योन्यदेशं समाश्रितः। तद्वंश्यस्यागतस्यांशःप्रवातव्यो न संशयः ॥ ततीयः पंचमश्चैव सप्तमो वापि यो भवेत । जन्मनामपरिज्ञाने लभेतांशं क्रमागतम ॥ यं परम्परया मौलाः सामन्ताः स्वामिनं विदुः। तदन्वयस्यागतस्य दातव्या गोत्रजर्मही । बृहस्पति (दायभाग ८।२-३; स्मृतिच० २, पृ० ३०७-३०८; दायतत्त्व पृ० १८०; वि० र० पृ० ५४०-५४१)। 'मौला' के विषय में देखिये--"ये तत्र पूर्व सामन्ताः पश्चाई. शान्तरं गताः । तन्मूलत्वात्तु ते मौला ऋषिभिः संप्रकीर्तिताः ॥ कात्या० (मिताक्षरा याज्ञ० २।१५१; अपरार्क पृ० ७६०) । कात्यायन ने 'मौल' की उत्पत्ति 'मूल' से मानी है। उनके कथन से वे जो पहले सामन्त (पड़ोसी) थे, किन्तु कालान्तर में बाहर चले गये (अन्यत्र चले गये) वे मौल कहे जाते हैं।
५७. यस्त्वाचतुर्थादविभक्तविभक्तानामित्यादिदेवलोक्तनियमः स सहवासादो। अयं तु दूरदुर्गमवासादावित्यविरोधः । वि० र० (पृ० ५४१) । स्मृतिच० (२, पृ० ३०८) का कथन है कि अन्तिम पद्य 'भूमि' की ओर संकेत करता है (अर्थात् बिभाजन केवल अचल सम्पत्ति के विषय में ही फिर से हो सकता है) । तदनेन चिरप्रोषितवंश्येन समन्ताद्वासिभिमौलरात्मज्ञापनपूर्वकं भागग्रह कार्यम् । दायभाग (८।४) ।
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