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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास धर्मसूत्र (७१।८५) एवं मिताक्षरा के प्रमाणों का सहारा लेते हैं । ५४ मित्र मिश्र-जैसे कट्टर लेखक 'लोक' ऐसे सीधे शब्दों को भी तोड़ते-मरोड़ते हैं, क्योंकि वे यह मानने को सन्नद्ध नहीं हैं कि साधारण लोग (विज्ञ लोगों द्वारा मान्य) शास्त्रवचनों के विरोध में जाने के योग्य हो सकते हैं । सरल रूप से यह कहने के स्थान पर कि प्राचीन मान्यताएँ एवं व्यवहार आगे चलकर सामान्य जनता द्वारा संशोधित हुए, मित्र मिश्र-जैसे लेखक कहते हैं कि इन बातों में सामान्य लोगों की बातें नहीं सुनी जानी चाहिये; वे यह भी कहते हैं कि प्रत्येक युग की अपनी विशेषताएं होती है, किन्तु सामान्य जनता किसी एक युग के लिए स्मृतियों द्वारा निर्धारित व्यवहारों को परिवर्तित करने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा कहना केवल वाग्जाल या वाक्छल मात्र है कि "बैल न काटना शिष्टाचार नहीं है, प्रत्युत वह शिष्टाचार का अभाव है।" ८७४ बात स्पष्ट है वह यह है कि सामान्य जनता नियोग एवं यज्ञों में गोवध को गहित मानती थी और आगे चलकर सूत्रों एवं स्मृतियों के लेखकों ने इसे मान लिया और कलियुग में ऐसे व्यवहारों को, जो श्रुतियों द्वारा आज्ञापित एवं विहित थे, वर्जित कर दिया, अर्थात् सामान्य जनता का स्वर एवं उसका विद्रोह पूज्य बेद के शब्दों के ऊपर उठ गया । यद्यपि ज्येष्ठ पुत्र को अधिक भाग या सम्पूर्ण सम्पत्ति देना आगे चलकर सामान्यतः बन्द हो गया, किन्तु इसके चिह्न आज तक भी देखने में आते हैं। आजकल भी कुछ ऐसी रियासतें, जमीन्दा रियां या राज रहे हैं जहाँ केवल एक उत्तराधिकारी को सम्पूर्ण सम्पत्ति मिल जाती रही है। कहीं-कहीं रूढ़ियों के अनुसार कुछ अविभाज्य रियासतें भी रही हैं, यथा-- देशमुख एवं देशपाण्डे नामक वतन । कहीं-कहीं परम्पराओं के आधार पर अधिक भाग ( ज्येष्ठांश या मोटप) भी विभाजन के समय दिये जाते रहे हैं । विभाजन सम्बन्धी भाग-निर्णय के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाएँ अवलोकनीय हैं -- (१) जब पिता एवं पुत्रों में विभाजन होता है तो प्रत्येक को पिता के समान ही भाग मिलता है; (२) जब भाइयों में विभाजन होता है। तो प्रत्येक को बराबर-बराबर मिलता है; (३) किसी व्यक्ति के मृत होने पर उसके पुत्र को रिक्थाधिकार प्राप्त हो जाता है; (४) जब विभाजन ऐमे सदस्यों में होता है जो वाचा या भतीजे हैं या चचेरे भाई हैं तो वह खानदान के अनुसार होता है, किन्तु एक ही शाखा के सदस्यों में सम्पत्ति के अनुसार होता है । यह नियम स्पष्ट रूप से कौटिल्य ( ३।५ ), याज्ञ० (२।१२० ), बृहस्पति एवं कात्यायन ( ८५५-८५६) में व्यक्त है । अन्तिम नियम की व्याख्या आवश्यक है । याज्ञ० (२।१२० ) का कथन है-" उन लोगों के बारे में, जो विभिन्न पिताओं के द्वारा अधिकारी होते है, भाग-निर्णय पिताओं के अनुसार होता है ।" कात्यायन का कथन है-- "जब कोई अविभाजित भाई मर जाता है तो ज्येष्ठ या किसी अन्य भाई को चाहिये कि वे उसके पुत्र को पैतृक सम्पत्ति का भागी बनायें ( किन्तु यह तभी होगा जब उसे पितामह से कोई रिक्थाधिकार न प्राप्त हुआ हो ) ; उसे उसके चाचा या बखेरे भाई द्वारा उतना भाग मिलना चाहिये जितना उसके पिता को ( जीवित रहते ) मिलता; प्रत्येक दायांश सभी भाइयों (जो मृत भाई के पुत्र हैं) के वैधानिक भाग के समानुरूप ही होगा । या उसके पुत्र ( मरते हुए भाई के पुत्र के पुत्र) को भी वह भाग मिलेगा; इसके आगे (अर्थात् मृत भाई के पौत्र के बाद) विभाजन की मांग की इतिश्री हो जाती है ।" यह कहा गया है कि पैतृक सम्पत्ति ( पितामह - द्रव्य) में पुत्रों एवं पौत्रों का जन्म से ही समान अधिकार है, किन्तु पौत्रों का भाग-निर्णय उनके पिताओं के द्वारा ही होता है, अर्थात् उन्हें व्यक्तिगत हैसियत से नहीं मिलता। इसे हम कुछ उदाहरणों से व्यक्त करते हैं । ५४. परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवजितो । धर्मं चाप्यसुखोदकं लोकविक्रुष्टमेव च ॥ मनु ( ४।१७६ ) ; धर्मविरुद्ध चार्थकामौ । लोकविद्विष्टं च धर्ममपि (परिहरेत्) । विष्णुधर्मसूत्र ( ७१८४-८५ ) ; जनघोषे सति क्षुद्रकर्म न कुर्यात् । बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र (१२६५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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