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ज्येष्ठ के विशेष दाय की आलोचना; कुछ शास्त्रवचनों का कालातीत होना
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सत्र आज नहीं किये जाते, किन्तु उनका किया जाना आज भी सम्भव है। मिताक्षरा (याज्ञ० २।११७) में उपस्थापित तर्क संक्षेप में, निम्न हैं---शास्त्रों में दी गयी (मनु ६।१०५, ११२, ११६, ११७, याज्ञ० २।११४) असमान विभाजन की विधि का उपयोग नहीं होना चाहिये, वह लोगों द्वारा गहित मानी गयी है, क्योंकि याज्ञ० (१।१५६) में आया है कि वह क्रिया जो शास्त्र विहित है, किन्तु जनता द्वारा गहित मानी जाती है, नहीं सम्पादित होनी चाहिये, क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। उदाहरणार्थ, यद्यपि याज्ञ० (१।१०६) ने ब्राह्मण अतिथि के लिए एक बड़े बैल एवं बकरे को काटने की व्यवस्था दी है, किन्तु आज ऐसा लोग नहीं करते, क्योंकि लोग इसे गर्हित समझते हैं. या जिस प्रकार यह श्रुतिवाक्य है कि “मिन एवं वरुण के लिए अनुबन्ध्या (बाँझ गाय) काटी जानी चाहिये।" किन्तु आज यह नहीं किया जाता, क्योंकि लोग इसे बुरा मानते हैं। ऐसा कहा गया है--"जिस प्रकार नियोग-प्रथा एवं अनुबन्ध्याहनन का आज प्रचलन नहीं है, उसी प्रकार ज्येष्ठ पुत्र को विशिष्ट अंश देने की मान्यता भी आज नहीं है।" और देखिये आपस्तम्ब० (२।६।१४।१-१४) । अत: शास्त्रविहित असमान भाग-निर्णय आज सामान्य मनोभाव के विरुद्ध है । स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २६६) में आया है कि धारेश्वर ने भी मनु (६।११२) के वाक्य का विवेचन नहीं किया है, क्योंकि उस समय तक उद्धार विभाग की विधि ही समाप्त हो चुकी थी।
स्म तिचन्द्रिका ने विश्वरूप के इस कथन का कि "जिस प्रकार विद्वान ब्राह्मण के लिए बैल एवं बकरा काटना आज शिष्टों द्वारा उचित नहीं माना जाता, उसी प्रकार उद्धार (ज्येष्ठ पुत्र को विशिष्ट अंश देना) भी उचित नहीं माना जाता", खण्डन किया है। इसका कथन है कि जब त-वचनों एवं शिष्टाचार में विरोध खड़ा हो जाय तो अन्तिम को ही दुर्बल मानना चाहिये और प्रथम को मान्यता मिलनी चाहिये। बैल न देना शिष्टाचार नहीं कहा जा सकता, प्रत्युत यह शिष्टाचार के अभाव का द्योतक है । स्मृतिचन्द्रिका ने मिताक्षरा के इस कथन का भी खण्डन किया है कि लोग ज्येष्ठ पुत्र को विशिष्ट अंश देना गहित मानते हैं। इसका कथन है कि यदि विद्या. गणों एवं पवित्र कर्मों से संयक्त ज्येष्ठ पुत्र को विशिष्ट अंश दिया जाता है तो लोग इसे प्रशंसनीय समझते हैं । मदनरत्न ने 'यथा नियोग आदि' एवं आदि-पुराण का उद्धरण दिया है। व्यवहारप्रकाश (पृ०४४२-४४३) ने सामान्यतः मिताक्षरा का अनुसरण किया है, किन्तु यह कहकर विरोध भी किया है कि इस विषय में कोई वास्तविक श्रुति-विरोध नहीं है। यदि ऐसी बात रही होती, और श्रुतिवचन सभी युगों के लिए घोषित है, तो असमान विभाजन सभी युगों में वर्जित माना जायगा और यह निष्कर्ष निकलेगा कि वे श्रुतिवचन जो असमान विभाजन की बात करेंगे प्रामाणिक नहीं होंगे, क्योंकि यह (असमान विभाजन) सभी युगों में नहीं प्रयोजित होगा (किन्तु वास्तव में ऐसा था)। इसके अतिरिक्त बौधायन ने एक अन्य श्रुतिवाक्य दिया है जिसने असमान विभाजन की चर्चा की है। व्यवहारप्रकाश ने इस बात की रक्षा करने हेतु कि लोगों द्वारा जो गर्हित माना जाता है उसे नहीं करना चाहिये, व्यवस्था दी है कि याज्ञ० (१:१५६) के 'लोक' का अर्थ है 'युग'; नहीं तो इस बात में, कि क्या शिष्टाचार है और किससे स्वर्ग-प्राप्ति नहीं होती, तिरोध उत्पन्न हो जायगा। साधारण लोगों द्वारा, जो शास्त्रों की बातें नहीं जानते, वैसा कार्य नहीं किया जा सकता जिससे स्वर्ग-प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि ऐसे लोग अग्नि एवं सोम के लिए की गयी पशु-हिंसा को गहित मान सकते हैं। इस विवेचन से प्रकट होता है कि श्रतिवचन एवं लोगों द्वारा प्रयुक्त मान्यताएं क्रमश: अप्रयक्त हो गयी और साधारण लोगों के तर्क एवं सामान्य ज्ञान श्रतिवचन के
रोध पड़ गय । मिताक्षर ने स्पष्ट कहा है कि लोगों द्वारा जा गर्हित माना जाता है उसे नहीं करना चाहिये, भले ही पहले, यह मान्य रहा हो और उसके पीछे श्रुतियों एवं स्मृतियों के वचन रहे हों। जो लोग मामाजिक विधियों एवं लोगों के व्यवहारों में परिवर्तन देखना चाहते हैं वे याज्ञवल्क्य एवं मन (४.१७६) के एक समान वचनों तथा विष्ण
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