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________________ ८७२ धर्मशास्त्र का इतिहास हैं, मध्यम पुत्र को शय्या आसन एवं पिता द्वारा प्रयुक्त पीतल के भोजनपात्र मिलते हैं, कनिष्ठ पुत्रों को काला अन्न (तिल), लोहा, घरेलू बरतन एवं बैलगाड़ी मिलती है। हारीत ने लिखा है -- "विभाजन पर ज्येष्ठ को एक बैल, अत्यन्त मूल्यवान सम्पत्ति, पूजा की मूर्ति एवं पैतृक भवन मिलता है, अन्य भाइयों को बाहर जाकर नये घर बनवाने चाहिये, किन्तु यदि भवन एक ही हो तो ज्येष्ठ को दक्षिण भाग (सुन्दरतम ) मिलना चाहिये ।" यह वरीयता उद्धार (अर्थात् जो पहले निकाला जाय ) के नाम से घोषित है ( मनु ६ । ११५ - ११६, विष्णु० १८ । ३७ आदि) । सम्पत्ति के विशिष्ट विभाजन के कुछ अन्य नियम भी थे । गौतम ( २८।५ ) के मत से ज्येष्ठ को विशिष्ट रूप से सम्पूर्ण सम्पत्ति का भाग, एक बैल एवं एक गाय, और एक गाय ( पृथक् रूप से ), एक रथ जिसमें घोड़े, गदहे जोते जाते हों तथा एक बैल की वरीयता प्राप्त होती थी । मनु ( ६ । ११२ ) के मत से ज्येष्ठ को अलग से सम्पूर्ण सम्पत्ति का बीसवां भाग, सम्पत्ति का सर्वोत्तम एवं अत्यन्त मूल्यवान भाग, मध्यम को उसका आधा ( अर्थात् चालीसर्वा भाग) तथा कनिष्ठ को उसका चौथाई ( अर्थात् अस्सीवाँ भाग) मिलना चाहिये। और देखिये वसिष्ठ ० ( १७।४२), नारद ( दायभाग, १३), बृहस्पति, शंख-लिखित आदि । आगे चलकर ज्येष्ठ पुत्र के विशिष्ट भाग एवं पिता के विशिष्ट भाग के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गयी । कात्यायन (८३८) ने लिखा है कि जब माता-पिता एवं भाई लोग संयुक्त सम्पत्ति को बराबर भाग में बाँटते हैं तो यह धर्म (वैधानिक ) है । बृहस्पति का कथन है कि पिता एवं पुत्रों को पृथक् धन एवं घरों में बराबर भाग लेना चाहिये, किन्तु पिता के स्वाजित धन में पिता की इच्छा के विरुद्ध पुत्र लोग भाग नहीं पा सकते । व्यवहारमयूख ( पृ० ६५ ) ने इससे निष्कर्ष निकाला है कि पितामह या अन्य दूर के पूर्वजों की सम्पत्ति में पिता की इच्छा के विरुद्ध पुत्र लोग विभाजन की माँग कर सकते हैं । मनु ( ६ । १२५ ) के अनुसार एक ही जाति की पत्नियों से उत्पन्न पुत्रों में जो सबसे पहले उत्पन्न ( यहां तक कि छोटी पत्नी से भी ) होता है वही ज्येष्ठ होता है, जुड़वां भाइयों में पहले उत्पन्न होनेवाला ज्येष्ठ होता है । किन्तु कई जातियों की पत्नियों में समान जाति वाली पत्नी का पुत्र ( भले ही वह बाद को उत्पन्न हुआ हो ) ज्येष्ठ होता है, और नीच जाति वाली पत्नी का पुत्र ( भले ही वह पहले उत्पन्न हुआ हो) कनिष्ठ कर दिया जाता है। यही बात देवल ( व्य० २० पृ० ४७७ एवं व्यवहारचिन्तामणि पृ० १२८ ) में भी पायी जाती है। ज्येष्ठ पुत्र एवं पिता की दायांश-सम्बन्धी वरीयता के विरुद्ध बातें इतनी बढ़ गयीं कि आगे चलकर यह वृत्ति नियोग-प्रथा एवं अनुबन्ध्या (बाँझ गाय की यज्ञ में बलि) के समान ही गहित मानी जाने लगी। इस विषय में मिताक्षरा तथा अन्य लेखकों के तर्क अवलोकनीय हैं। मनु के सबसे प्राचीन टीकाकार मेधातिथि ने मनु ( ६ । ११२ ) की व्याख्या में बताया है कि नियोग-सम्बन्धी एवं ज्येष्ठ पुत्र के विशिष्ट अंश से सम्बन्धित बातें केवल प्राचीन काल में ही प्रचलित थीं, काल एवं देश के अनुसार स्मृतियों के वचन परिवर्तित होते हैं। प्राचीन काल के सूत्र, जिनमें वैदिक विद्यार्थियों को वैदिक मन्त्र कण्ठस्थ रखने पड़ते थे, आज कल ( मेधातिथि के काल में भी) प्रचलित नहीं हैं। स्वयं मनु (१८५ ) ने कहा है कि विभिन्न युगों में विधिन्न धर्मं होते हैं । किन्तु मेधातिथि ने इस तर्क को नहीं माना है । उनका कथन है कि विभिन्न युगों में विभिन्न धर्म नहीं होते, किसी देश में धर्म के पालन में कोई बाधा नहीं है । यद्यपि 1 ५३. नियोग प्रथा के लिए देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय १३ । 'अनुबन्ध्या' (अनबन्ध्या) का अर्थ है बांझ गाय, इसको अग्निष्टोम यज्ञ के अन्त में उदयनीया इष्टि के पश्चात् बलि दी जाती थी । देखिये इस प्रन्थ का भाग २, अध्याय ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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