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________________ विभाजन में ज्येष्ठ पुत्र की विशेषता ८७१ को अकारण वञ्चित करना चाहिये । (३५) ।५१ यही बात कात्यायन (८४३) ने कही है। किन्तु यदि हम स्मृतियों के कुछ वचनों को (यथा याज्ञ० २।११६; नारद, दायभाग १५) शाब्दिक अर्थ में लें तो प्रकट होता है कि प्राक्कालीन भारतीय पिता पैतृक सम्पत्ति को मनोनुकूल ढंग से अपने पुत्रों में वितरित करते थे । नारद (दायभाग, १५) का कथन है--जब पिता अपने पुत्रों में सम्पत्ति बाँट देता है तो वह वैधानिक विभाजन है, अर्थात् हम उसे काट नहीं सकते, भले ही वह कम हो, बराबर हो या अधिक हो। बृहस्पति ने लिखा है कि यदि (पिता द्वारा) व्यवस्थित विभाजन परिवर्तित हो तो दण्ड मिलता है। आगे चलकर ये वचन या तो पुराने काल के लिए उचित ठहराये गये (व्यवहारमयूख पृ०६६) या पिता की स्वाजित सम्पत्ति से सम्बन्धित माने गये (मिताक्षरा, याज्ञ० २।११४), या ऐसा समझा जाने लगा कि यदि पिता का विभाजन वैधानिक है तो वह तोड़ा नहीं जा सकता, किन्तु यदि वह अवैधानिक है तो परिवर्तित किया जा सकता है (मिता०-याज्ञ० २।११६ ; मदनरत्न, मदनपारिजात पृ० ६४६) । स्वयं नारद (दायभाग, १६) ने लिखा है कि यदि पिता रोगग्रसित हो या क्रोध में हो (अपने पुत्र या पुत्रों से ) या विषयासक्त हो या शास्त्र-विरुद्ध कार्य करता हो, तो उसको अपनी इच्छा से दायभाग विभाजित करने का कोई अधिकार नहीं है। ज्येष्ठ पुत्र को प्राचीन काल से अब तक विशिष्टता मिलती रही है । यह विशिष्टता कई रूपों में प्रकट होती रही है । कुछ मतों से ज्येष्ठ पुत्र को सम्पूर्ण सम्पत्ति मिल जाती थी। आप (२।६।१४।६), मनु (६।१०५-१०७), नारद (दायभाग, ५) ने इस मत की ओर निर्देश किया है। मनु (६।१०५-१०७) ने लिखा है कि ज्येष्ठ पुत्र सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति पा सकता है, किन्तु उन्होंने यह भी लिखा है कि अन्य पुव ऐसी स्थिति में अपने ज्येष्ठ भाई पर अपनी दि के लिए उसी प्रकार निर्भर हैं जिस प्रकार अपने पिता पर । मनु का कथन है कि ज्येष्ठ पुत्र जन्म के कारण पिता को पितृ-ऋण से मुक्त करता है; अतः वह पिता से सम्पूर्ण सम्पत्ति पाने की पात्रता रखता है (देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ७)। ___ज्येष्ठ पुत्र को कुछ अधिक सुविधाएँ भी दी जा सकती थीं, उसे कुछ अत्यन्त सुन्दर एवं बहुमूल्य पदार्थ देकर शेष धन का विभाजन हो सकता था। ऐसा ही आपस्तम्ब० (२।६।१४।१) एवं बौधायन० (२।२।२-५) ने तैत्तिरीय संहिता (२।२।२।७) को समझा है।५२ मनु (६।११४) के मत से ज्येष्ठ पुत्र को सम्पत्ति का सुन्दरतम रूप मिल सकता है, उसे श्रेष्ठ वस्तु मिल सकती है और दस पशओं के दल का सर्वोत्तम भाग मिल सकता है। कौटिल्य (३॥६) ने उशना का उल्लेख करके लिखा है कि एक माता के पुत्रों में ब्राह्मणों में ज्येष्ठ पुत्र को बकरियां, क्षत्रियों में घोड़े, वैश्यों में गायें एवं शूद्रों में भेड़ें, विशिष्ट भाग के रूप में प्राप्त होती हैं । यदि पशु न हों तो ज्येष्ठ पुत्र को बहुमूल्य रत्नों को छोड़ कर एक दशांश अधिक भाग मिलता है, क्योंकि वह श्राद्धकर्म द्वारा पिता को नरक के बन्धनों से मुक्त करता है । स्वयं कौटिल्य ने लिखा है कि ज्येष्ठ पुत्र को पिता की मृत्यु के पश्चात् उसके गहने एवं यान मिलते ५१. जीवद्विभागे पिता नैक विशेषयेत् । न चैकमकारणान्निविभजेत् । अर्थशास्त्र (३१५, पृ० १६१); जीवद्विभागे तु पिता नकं पुत्रं विशेषयेत् । निर्भाजयेन्न चैवैकमकस्मात्कारणं विना ॥ कात्या० (८४३, दायभाग ११८४, पृ० ५६; व्य० प्र० पृ० ४३६) । ५२. मनुः पुत्रेभ्यो दायं व्यभजदिति श्रुतिः। समशः सर्वेषामविशेषात् ।वरं वारूपमुद्धरेज्ज्येष्ठः तस्माज्ज्येष्ठ पुत्रं धनेन निरवसाययन्तीति श्रुतिः । बौधा० (२।२।२-५) । स्मृतिच० (२, पृ० २६०) एवं आप० ने 'निरवसाययन्ति' को 'तोषयन्ति' के अर्थ में ग्रहण किया है । वि० र० (पृ० ४६७) ने इस प्रकार व्याख्या की है-ज्येष्ठं पुत्रं धनेनोद्धरणलक्षणेन निरवसाययन्ति इतरपुत्रेभ्यः पृथक् कुर्वन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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