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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास लिए) । ४८ यदि भाई अलग होना चाहते हों और उनमें कुछ का विवाह हो चुका हो और अन्य अभी अविवाहित हों, तो अविवाहितों के संस्कारों (विवाहादि ) के लिए संयुक्त कुल सम्पत्ति से व्यवस्था होनी चाहिये । यहाँ तक कि कौटिल्य (३।५) ने भी अविवाहित भाइयों एवं बहिनों के विवाह व्यय की व्यवस्था दी है । याज्ञ० ( २1१२४ ) नारद ( दायभाग, ३३), बृहस्पति आदि ने व्यवस्था दी है कि पैतृक सम्पत्ति से छोटे भाइयों के संस्कारों (उपनयन, विवाह आदि) के लिए धन मिलना चाहिये । ४६ ८७० यह हमने देख लिया है कि पिता अपने जीवन काल में अपने से अपने पुत्रों को एवं पुत्रों से पुत्रों को अलग कर सकता था और अपने पुत्रों को दायांश दे सकता था। पिता के इस अधिकार की ओर तैत्तिरीय संहिता (३|१|६|४) में भी संकेत मिलता है; मनु ने अपने पुत्त्रों में अपनी सम्पत्ति बाँटी थी । आपस्तम्ब० (२|६| १४|११ ) का कथन है कि मनु ने बँटवारे में कोई अन्तर नहीं किया, अतः दायांश बराबर-बराबर होता है और ज्येष्ठ पुत्र की ओर अतिशयता अथवा अधिकानुराग प्रदर्शित करना शास्त्रविहित नहीं है एवं तैत्तिरीयसंहिता ( २२५/२/७ ) का यह कथन कि वे “ज्येष्ठ पुत्र की वरीयता अधिक भाग देकर प्रकट करते हैं" केवल अनुवाद ( तथ्य का कथन ) मात्र है तथा यह वैदिक कथन केवल कुछ लोगों द्वारा शास्त्रानुकूल न चलने का अपवाद प्रदर्शित करता है। विरोध में कोई अन्य नहीं पायी जाती, अतः सामान्य नियम समान दायांश ही था, जैसा कि जैमिनि ( १० ३।५३ ) का कथन है- 'संमस्थादश्रुतित्वात् ' और जिस पर मिताक्षरा ( याज्ञ० २।२६५ ) की निर्भरता पायी जाती है । तैत्तिरीय संहिता के कथन से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में दोनों नियम प्रचलित थे; समान दायांश एवं ज्येष्ठ पुत्र के प्रति अधिकानुराग । आपस्तम्ब (२२६| १४।७) ने स्पष्ट कहा है कि कुछ देशों में सोना, काली गायें, या भूमि की काली उपज ज्येष्ठ का विशिष्ट भाग है । ५० प्रायः सभी सूत्रों एवं स्मृतियों ने समान जाति की पत्नियों के पुत्रों में समान दायभाग का नियम घोषित किया है ( आपस्तम्ब २|६|१४|१; बौधा० २।२।२-३; मनु ६ । १५६; याज्ञ० २०११७; विष्णु० १८/३६; कौटिल्य ३१५; बृहस्पति, कात्या० ८३८) । इनमें कुछ ने ज्येष्ठ के लिए विशिष्ट भाग की व्यवस्था दी है, जिसे उद्धार संज्ञा मिली है। कौटिल्य का कथन है- अपने जीते-जी पिता को विभाजन में विशेषता नहीं प्रकट करनी चाहिये और न किसी ४८. ऋणरिक्थयोः समो विभागः । अर्थशास्त्र ( ३।५ ) ; ऋणं प्रीतिप्रदानं च दत्त्वा शेषं विभाजयेत् । कात्या० ( ८५०, स्मृतिच० २, पृ० २७३, व्यवहारनिर्णय पृ० ४४६ ) ; कुटुम्बार्थमशक्तेन गृहीतं व्याधितेन वा । उपप्लवनिमित्तं च विद्यादापत्कृतं तु तत् ।। कन्यावैवाहिकं चैव प्रेतकार्ये च यत्कृतम् । एतत्सर्वं प्रदातव्यं कुटुम्बेन कृतं प्रभोः ॥ कात्यायन ( ५४२-५४३, अपरार्क पृ० ६४७; स्मृतिच० २, पृ० १७४- १७५; विवादरत्नाकर पृ० ५६ ) । यहाँ प्रभोः का अर्थ "प्रभुणा" है । ४६. संनिविष्टसम्म संनिविष्टेभ्यो नैवेशनिक दद्युः । कन्याभ्यश्च प्रदानिकम् । अर्थशास्त्र ( ३।५ ) ; असंस्कृता भ्रातरस्तु ये स्युस्तत्र यवीयसः । संस्कार्या भ्रातृभिश्चैव पैतृकान्मध्यगाद्धनात् ॥ बृहस्पति (स्मृतिच० २, पृ० २६६, वि० २० पृ० ४६२ ) ; व्यवहारमयूख ( पृ० १०६ ) ; अपरार्क ( पृ० ७३१); पराशरमाघवीय ( ३, पृ० ५०८ ) ; व्यवहारप्रकाश ( पृ० ४५४ ) ; विश्वरूप ( याज्ञ० २।१२८ ) ; मदनपारिजात ( पृ० ६४८ ) | ५०. एकधनेन ज्येष्ठं तोषयित्वा । ज्येष्ठो दायाद इत्येके । देशविशेषे सुवर्ण कृष्णा गावः कृष्णं भौमं ज्येष्ठस्य ······ तच्छास्त्रविप्रतिषिद्धम् । मनुः पुत्रेभ्यो दायं व्यभजदित्यविशेषेण श्रूयते अथापि तस्माज्ज्येष्ठं पुत्रं धनेन निरवसाययन्तीत्येकवच्श्रूयते । अथापि नित्यानुवादमविधिमाहुर्व्यायविदो तथा तस्मादजावयः पशूनां सह चरन्तीति । ....... सर्वे हि धर्मयुक्ता भागिनः । आपस्तम्ब० (२ ६ १४१, ६-७, १०-१३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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