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________________ विभाजन के लिए दायादों की व्यवस्था ८६६ हो जाय, किन्तु आगे चलकर वह दोषी हो जाता है तो उसे जो मिला रहता है वह छीना नहीं जा सकता है । आपस्तम्ब० (२।६।१४।१५), गौतम (२८१३८) एवं मनु ( ६ । २१४ ) के कथन से प्रकट है कि यदि ज्येष्ठ पुत्र या भाई अनैतिक ढंग से कुल सम्पत्ति का व्यय करें तो पिता य। भाइयों द्वारा उन्हें विभाजन के समय दायांश से वंचित किया जा सकता है । गौतम (२८।४३) एवं विष्णु० ( १५ ३७ ) का कथन है कि प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न (निम्न व्यक्ति द्वारा उच्च जाति की स्त्री से उत्पन्न ) पुत्त्रों को शूद्रा से उत्पन्न ब्राह्मण-पुत्रों के समान मानना चाहिये, अर्थात् उन्हें उनके पिता द्वारा जीविका मिलनी चाहिये । किन्तु यह बात स्मरणीय है कि प्रतिलोम विवाह गर्हित माने जाते रहे हैं; कात्यायन (८६२-८६४) का कथन है कि 'वह पुल, जो अपनी जाति के अतिरिक्त किसी अन्य जाति के पति से विवाहित माता का पुत्र है, या जो सगोत्र विवाह से उत्पन्न है, या जो संन्यास धर्म से च्युत हो चुका है, वह अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकार नहीं पाता । किन्तु वह पुत्र, जो ऐसी स्त्री का पुत्र है जो पति की जाति से हीन जाति की है और जिसकी विवाह क्रिया सम्यक् ढंग से हुई है, पिता की सम्पत्ति पाता है ।' किन्तु प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न पुत्र को पैतृक सम्पत्ति नहीं मिलती । उसे उसके सम्बन्धियों से केवल भोजन-वस्त्र मिलने का अधिकार रहता है । जब कोई सम्बन्धी न हों तो ऐसे पुत्र को पिता की सम्पत्ति मिल जाती है, किन्तु यदि पिता ने कोई सम्पत्ति नहीं छोड़ी है तो सम्बन्धियों के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वे उसे भोजन-वस्त्र दें । विभाजन विधि एवं भाग-निर्णय विभाजन की मांग करने के पूर्व भाई को चाहिये कि वह अपनी बहिन तथा अपने भाइयों की बहिनों के विवाह के व्यय के लिए ब्यवस्था अवश्य कर दे । इस विषय में निबन्धकारों एवं टीकाकारों में मतैक्य नहीं है। कौटिल्य (३५), विष्णु ( १८ । ३५ एवं १५।३१ ) एवं बृहस्पति के मत से अविवाहित बहिनों के विवाह व्यय की व्यवस्था होनी चाहिये, किन्तु मनु ( ६।११८ ), याज्ञ० ( २।१२४ ) एवं कात्यायन ( ८५८ ) के मत से भाइयों को अपनी बहिनों के विवाह के लिए एक-चौथाई भाग देना चाहिये । इस विषय में व्याख्या के लिए देखिये मिताक्षरा ( याज्ञ० २।१२४ ) । मिताक्षरा ने विवाह में लगने वाले उचित व्यय की दूसरे ढंग से व्यवस्था की है और मनु ( ६ । ११८ ) का उल्लेख कर असहाय, मेघातिथि एवं भारुचि के मतों की भी चर्चा की है । दायभाग ( ३।३६ एवं ३६, पृ० ६६-७० ) के मत से यदि सम्पत्ति थोड़ी है तो अविवाहित कन्या के विवाह के लिए एक चौथाई मिलना चाहिये, किन्तु यदि सम्पत्ति पर्याप्त है तो केवल आवश्यक व्यय मिलना चाहिये । स्मृतिचन्द्रिका व्यवहाररत्नाकर ( पृ० ४६४), विवाद चिन्तामणि ( पृ० १३४ ) ने भारुचि कामत (केवल आवश्यक व्यय, कोई निश्चित भाग नहीं ) माना है, किन्तु व्यवहारमयूख (पु० १०६ ), मदन रत्न एवं व्यवहारप्रकाश ( पृ० ४५६ ) ने मिताक्षरा का मत (अविवाहित कन्या को विवाह के लिए उतना ही मिलना चाहिये जितना उसे पुरुष होने पर मिला होता ) मान्य ठहराया है । भागों के निर्णय के पूर्व पैतृक सम्पत्ति से कुल के ऋणों का भुगतान, पिता द्वारा लिये गये नैतिक एवं वैधानिक ऋणों का भुगतान, पिता द्वारा दिये गये स्नेह दानों (प्रीतिप्रदानों). दोषी सहभागियों का जीविकानिर्वाह, आश्रित नारियों एवं वैवाहिक व्ययों आदि की व्यवस्था अवश्य हो जानी चाहिये । देखिये मनु ( ८1१६६, कुटुम्ब ऋण के लिए) याज्ञ० (२।११७), नारद ( दायभाग ३२), कात्यायन ( ८५०) आदि (पिता के ऋणों एवं प्रीति दानों के लिए) एवं कात्यायन ( ५४२ - ५४३, विविध वैधानिक आवश्यकताओं के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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