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धर्मशास्त्र का इतिहास
से उत्पन्न पुत्र भी पतित माना गया है (याज्ञ० २।१४० ; विष्णु ० १५॥३५-३६ एवं कौटिल्य ३।५)।४६ किन्तु कन्या के विषय में एक उदार अन्तर भी पाया जाता है । वसिष्ठ० (१३।५१-५३) ने लिखा है--"ऋ षियों का कथन है कि जो पतित से उत्पन्न होता है, वह पतित हो जाता है; केवल कन्या नहीं होती, क्योंकि वह दूसरे के पास (पत्नी रूप में) जाने वाली है। बिना धन लिये उसे कोई व्याह सकता है।४७ यही बात याज्ञवल्क्य (३।२६१) ने भी कही है। किन्तु कन्या को उपवास करने तथा पिता के घर से कुछ न ले जाने की व्यवस्था दी है। विश्वरूप (याज्ञ० ३।२५७) ने हारीत का निम्न हवाला दिया है। पतित की कन्या को एक दिन और रात उपवास करना चाहिये, नग्न होकर स्नान करना चाहिये, प्रातःकाल नया एवं श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिये, तीन बार “मैं उसकी (पतित पिता की) नहीं हूँ, और न वह मेरा कोई है, ऐसा कहना चाहिये ; और तब किसी पवित्र स्थान (नदी आदि) पर या वर के घर में विवाहित होना चाहिये।
उपर्युक्त पतित-सम्बन्धी नियमों का फल यह हुआ कि यदि हिन्दू ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया या जातिच्युत हो गया या किसी दुर्गुण के कारण जाति से निकाल बाहर किया गया तो उसे बुरी दृष्टि से देखा जाने लगा और उसे विभाजन तथा रिक्थाधिकार से वंचित कर दिया गया। किन्तु अब (सन् १८५० के कानून के अनुसार) ये नियम अवैधानिक मान लिये गये हैं।
___सभी स्मतियों का कहना है कि जिन्हें दोषों के कारण दायांश नहीं मिलता उन्हें कुल-सम्पत्ति से जीवन भर जीविका के साधन प्राप्त होते हैं (गौतम २८१४१; वसिष्ठ १७१५४; विष्णु० १५॥३३; मनु ६२०२; याज्ञ. २।१४० आदि)। यदि अयोग्य ठहराये गये व्यक्ति विवाह करना चाहते हैं या विवाहित हैं, तो उनकी पुत्र हीन पत्नियों को, जो सदाचारिणी हैं, जीविका मिलती है (याज्ञ० २।१४२), किन्तु जो व्यभिचारिणी हैं, उन्हें निकाल बाहर किया जाता है। किन्तु मिताक्षरा (याज्ञ० २।१४२ ने जोड़ दिया है कि जो अयोग्य ठहराये गये व्यक्तियों की सदाचारिणी पत्नियाँ हैं उन्हें जीविका देनी चाहिये, भले ही वे विरोधी सिद्ध हो चुकी हों। मनु (६।२०३) एवं याज्ञ० (२।१४१) के मत से, अयोग्य व्यक्तियों के योग्य (क्लीबता आदि दोषों से मुक्त) औरस या क्षेत्रज्ञ पुत्रों को संयुक्त सम्पत्ति का भाग मिलता है, उनकी पुत्रियों को जीविका मिलती है और उनके विवाह आदि कर्म किये जाते है । स्पष्ट है कि अयोग्य उत्तराधिकारियों को गोद लेने का अधिकार नहीं था, क्योंकि केवल औरस एवं क्षेत्रज पुत्रों का ही उल्लेख हुआ है । कुछ स्मृतियों ने पतित एवं उसके पुत्र को जीविका से भी वंचित कर दिया है, तथा बौधायन (२।२१४६), कौटिल्य (३५), देवल, विष्णु० (१५।३५-३६) । उपर्युक्त दोषों से ग्रसित होने पर सहभागियों को विभाजन के समय दायांश से वंचित ठहरा दिया जाता है। किन्तु विभाजन के उपरान्त यदि व्यक्ति दवा आदि से दोषमुक्त हो जाये तो उन्हें विभाजन के उपरान्त उत्पन्न हुए पुत्र के समान अधिकार प्राप्त होता है और वे पुनर्विभाजन की मांग कर सकते हैं । यदि विभाजन के समय व्यक्ति दोषमुक्त हो और उसे दायांश प्राप्त
४६. तेषां चौरसाः पुत्रा भागहारिणः । न तु पतनीयस्य पतनीये कर्मणि कृते त्वनन्तरोत्पन्नाः। विष्णुधर्मसूत्र (१॥३४-३६) ।
४७. पतितेनोत्पन्नः पतितो भवतीत्याहुरन्यत्र स्त्रियाः । सा हि परगामिनी । तामरिक्थामुपेयात् । वसिष्ठ (१३॥५१-५३); कन्यां समुद्वहेदेषां सोपवासामकिंचनाम् । याज्ञ० (३।२६१); तथा च हारीतः --पतितस्य तु कुमारी विवस्त्रामाप्लाव्याहोरात्रोपोषितां प्रातः शुक्लेनाहतेन वाससाच्छाद्य नाहमेतेषां न ममैत इति त्रिरुच्चरभिधाय तीर्थे स्वगृहे बोद्वहेत् । विश्वरूप (याज० ३।२५७) ।
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