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महापातक, पतनीय, पतित प्रायश्चित्त
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(२।१।५०-५६ ) में एक भिन्नही तालिका है; समुद्रयाता, ब्राह्मण की सम्पत्ति की चोरी, धरोहर का दुरुपयोग, भूमि के लिये मिथ्या साक्षी होना, निषिद्ध वस्तुओं का व्यापार, शूद्र की नौकरी करना, शूद्रा से पुत्रोत्पति करना। मनु ( ११३४), याज्ञ० ( ३।२२७) एवं विष्णु ० ( ३५।१ ) ने अति प्रसिद्ध पांच महापातकों के नाम गिनाये हैं; ब्रह्महत्या, सुरापान, स्तेय, व्यभिचार एवं ऐसे लोगों के साथ लगातार एक वर्ष तक संगति करना । और देखिये संसगं या संयोग के विषय में मनु (११।१८० = शान्तिपर्व १६५।३७ = बौधायन० २1१1८८ = वसिष्ठ० १।२२) एव याज्ञ० (३ २६१) । वृद्ध बृहस्पति (मिताक्षरा, याज्ञ० ३।२६१ ) ने पतित के संकर या साथ के नौ प्रकार दिये हैं-- एक ही आसन या शय्या का सेवन, एक ही पंक्ति में बैठकर खाना, उसके ( पतित के ) बरतन में भोजन बनाना, उसके द्वारा पकाये गये भोजन को खाना, उसका पुरोहित होना या उसे पुरोहित बनाना, उसका वेद-गुरु होना या उसका वेद-शिष्य होना, उसके लड़के से अपनी लड़की व्याह्ना या उसकी लड़की से अपना लड़का व्याह्ना, एक ही पान में पतित के साथ भोजन करना । और देखिये देवल (अपरार्क पृ० १०८७ एवं मिताक्षरा, याज्ञ० ३ । २६१ ) । जो कारण पुरुष को पतित बनाते हैं, उन्हीं से स्त्रियां भी पतित मानी जाती हैं; जो स्त्री अपने से नीच जाति से संभोग करती है वह पतित होती है, पतित स्त्रियों का यह एक अलग कारण भी माना गया है ( गौतम २१६, याज्ञ० ३।२६७ एवं शौनक मिता० - याज्ञ० ३।२६१) । प्राचीन ऋषियों ने पतित स्त्रियों के प्रति उदारता दिखायी है । याज्ञ० ( ३।२६६ ) के मत से पतित स्त्रियों को, जब तक वे प्रायश्चित्त न कर लें, घर के बाहर सड़क पर नहीं निकाल देना चाहिये, प्रत्युत उनके लिए घर के पास एक झोपड़ी बना देनी चाहिये, उन्हें खाने-पीने को देना चाहिये तथा आगे पतित होने से बचाना चाहिये (देखिये इस ग्रन्थ का भाग २ अध्याय ६ ) ]
असतीत्व एवं दायभाग से सम्बन्धित बातों की चर्चा आगे होगी । मनु (११।५६ ) के अनुसार व्यभिचार सामान्यतः एक उपातक माना जाता है और उसके लिए साधारण प्रायश्चित्त है चान्द्रायण व्रत या गोबत ( मनु ११।११७) । किन्तु नीच जाति के पुरुष के साथ व्यभिचार से स्त्री पतित हो जाती है और उसे विभाजन द्वारा ( माता या पत्नी के रूप में) कोई भाग नहीं मिलता ।
उन लोगों के लिए जो महापातकी हैं और जिन्होंने महापातकों से मुक्ति पाने के लिए व्यवस्थित प्रायश्चित्त नहीं किये हैं, एक अनोखी विधि की व्यवस्था की गयी है जिसे घटस्फोट कहा जाता है। इसके अनुसार जो जातिच्युत होते हैं, उनसे सारे सम्बन्ध तोड़ लिये जाते हैं और वे मृत रूप में ग्रहण किये जाते हैं (देखिये इस ग्रन्थ का भाग २ अध्याय ७; गौतम २०१२ - ७; मनु ११।१८२ - १८४ एवं याज्ञ० ३ - २६४ ) । जब पतित लोग व्यवस्थित प्रायश्चित्त कर लेते हैं तो वे व्यवहार्य ( व्यवहार एवं संगति के योग्य) माने जाते हैं । उनके साथ उनके सम्बन्धीगण किसी पुनीत नदी में स्नान करते हैं, किसी अछूते घट में जल भरकर जल में छोड़ते हैं और पतित हुए व्यक्ति सम्बन्धियों के बीच गायों को घास खिलाते हैं, तब वे पातक-विमुक्त ठहराये जाते हैं और उनके सम्बन्धी लोंग-बाग उनमें दोष नहीं देखते । देखिये मनु ( ११।१८६ -१८७ ), याज्ञ० ( ३।२६५, २६६), वसिष्ठ ( १५/२० ), गौतम (२०।१०-१४) । आपस्तम्ब० ( १२६ । २४ । २४-२५ एवं १।१०।२६।१-२ ) ने व्यवस्था दी है कि गुरु एवं सोमयाजी श्रोत्रिय ( वेदज्ञ ) के हत्यारे एवं भ्रूणहत्यारे को जीवन भर प्रायश्चित्त करना चाहिये, उसको लोगों से सम्बन्ध रखने का जीवन भर सुयोग नहीं प्राप्त होता और न वह अपने सम्बन्धियों से पुनः मिल सकता है । घटस्फोटसम्बन्धी क्रिया-संस्कार के लिए देखिये निर्णयसिन्धु ( ३, उत्तरार्ध, पृ० ५६७-६८ ) एवं धर्मसिन्धु ( ३, उत्तरार्ध, पृ० ४५३-५४) ।
स्मृतियों के मत से जान-बूझकर पाप करनेवाला प्रायश्वित्त से भी पूर्णरूपेण शुद्ध नहीं होता, किन्तु उसके साथ सम्बन्ध स्थापित हो सकता है (याज्ञ० ३।२२६) । बहुत-सी स्मृतियों के अनुसार पापकर्म करने के उपरान्त पतित
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