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धर्मशास्त्र का इतिहास
पोषण मिलना चाहिये, किन्तु उनके पुत्रों को दायांश मिलता है। किन्तु आजकल ये बातें अमान्य ठहरा दी गयी हैं। (देखिये हिन्दू इनहेरिटेंस एक्ट, १६२८)। मिताक्षरा के अन्तर्गत आज केवल पागलपन एवं जन्म से मूढ़ता का दोष ही दायांश के अनधिकार के लिए ठीक माना गया है। यह कानून दायभाग द्वारा व्यवस्थित लोगों के अतिरिक्त अन्य प्रान्तों के लोगों के लिए मान्य है। दायभाग के अन्तर्गत ये उपर्युक्त दोष अभी भी ज्यों-के-त्यों पड़े हुए हैं, हाँ कुछ न्यायिक निर्णयों एवं अन्य कानूनों से संशोधित अवश्य हुए हैं। अब प्रश्न यह है कि उस पुत्र की क्या वास्तविक स्थिति है जो शारीरिक रूप से पागल या जड़ है । मनु (६।२०१) एवं याज्ञ० (२।१४० एवं १४१) ने तो उसे अनंश या निरंशक (पैतृक सम्पत्ति के अंश के लिए अयोग्य ) घोषित किया है, किन्तु उसके भरण-पोषण की व्यवस्था दी है, और कहा है कि यदि उसे जीविका न दी जायगी तो न देनेवाले को पाप लगेगा, किन्तु उन्होंने आगे चलकर व्यवस्था दी है कि यदि उसके पुन इन दोषों से मुक्त हों तो उन्हें दायांश मिलता है । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१४०) के अनुसार अनंशता के लिए स्त्री एवं पुरुष दोनों एक ही प्रकार के दोषों एवं दुगुणों से शासित हैं ।
यहाँ हम पतित एवं उसके पुत्र के विषय में कुछ विशेष व्यवस्थाओं की चर्चा करेंगे । सभी प्रकार के पापमय कर्मों से व्यक्ति पतित नहीं ठहराया जाता । पातकों की कई कोटियां होती हैं और हम उनके विषय में आगे पढ़ेंगे। प्राचीन लेखकों ने महापातकों को कई प्रकार से उल्लिखित किया है। निरुक्त (६।२७) ने ऋग्वेद (१०।५।६) की व्याख्या करते हुए सात पापों की चर्चा की है-स्तेय (चोरी), तल्पारोहण (गुरुओं की शय्या पर सोना), ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, बार-बार दुष्कृत्य करना, पातक और अनृत (झूठ बोलना)।४४ तैत्तिरीयसंहिता(२।५।१।१), शतपथब्राह्मण (१३।३।१) एवं अन्य ब्राह्मणों में ब्रह्महत्या सबसे बड़ा पाप माना गया है (देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ३)। छान्दोग्योपनिषद् (५।१०१६) में सोने की चोरी करनेवाले, सूरा पीनेवाले, गरुशय्या को अपवित करनेवाले, ब्रह्महत्यारे एवं इन चारों की संगति करने वाले को पंच-महापातकी कहा गया है। ४५ गौतम(२१।१-३)ने निम्न लोगों को पतित घोषित किया है--ब्रह्महत्यारा, सुरा पीनेवाला, गुरु की पत्नी से संभोग करनेवाला, माता या पिता की सपिण्ड स्त्री के साथ संभोग करनेवाला, (ब्राह्मण के ) सोने की चोरी करनेवाला, पाषण्डी (नास्तिक), निषिद्ध कर्म को लगातार करनेवाला, स्नेहवश अपने पतित पुत्र आदि को न त्यागनेवाला, अपने ऐसे सम्बन्धियों को जो पतित नहीं है त्यागने वाला, दुसरे को पाप कर्म करने के लिए उकसाने वाला, पतित के साथ एक वर्ष तक रहनेवाला (उसकी शय्या, आसन या पान का प्रयोग करनेवाला)। आपस्तम्ब० (१७।२१।८-११) में पतनीयों (महापातकों) की लम्बी तालिका है। वसिष्ठ० (१।१६-२१) ने निम्न पंच महापातक गिनाये हैं----गुरुशय्या सेवन, सुरापान, विद्वान् ब्राह्मण की हत्या, ब्राह्मण के सोने की चोरी, पतित का गुरु, शिष्य या पुरोहित होना या उससे वैवाहिक सम्बन्ध रखना । बौधायन०
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४४. सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिवभ्यंहुरो गात् । ऋ० (१०।५।६); सप्त एव मर्यादाः कवयः ततक्षुः चक्र: । तासामेकामपि अधिगच्छ
तल्पारोहणं ब्रह्महत्यां मणहत्या दुष्कृतस्य कर्मण: पुनः पुनः सेवा पातके अनृतोद्यमिति । निरुक्त (६।२७) । भ्रूण को कई प्रकार की व्याख्याओं के लिए देखिये इस प्रन्थ का भाग २, अध्याय ३ । और देखिये गौतम (२१।६), वसिष्ठ (२०१२३)।
४५. स्तेनो हिरण्यस्य सुरां पिबंश्च गुरोस्तल्पमावसन् ब्रह्महा चैते पतन्ति चत्वारः पञ्चमश्चाचरंस्तैरिति । छान्दोग्योपनिषद् (५।१०६); बृह० उप० (४।३।२२); और देखिये मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२२७); विष्णुधर्मसूत्र (५७।१-५)--"अथ त्याज्याः । व्रात्याः । पतिताः । त्रिपुरुषं मातृतः पितृतश्चाशुद्धाः । सर्व एवाभोज्याश्चाप्रतिप्रायाः।"
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