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________________ उत्तराधिकार या भाग के अयोग्य व्यक्ति ८६५ पूर्व के आचार्यों के इस कथन का खण्डन किया है कि सारी सम्पत्ति यज्ञों के लिए हो है । वे पूर्व आचार्य दो स्मृति-वचनों पर निर्भर थे ; सभी द्रव्य (सभी प्रकार की या चल सम्पत्ति) यज्ञ के लिए उत्पन्न की गयी है ; अतः वे लोग जो यज्ञ के योग्य नहीं हैं, पैतृक सम्पत्ति के अधिकारी नहीं है, उन्हें केवल वस्त्र भोजन मिलेगा।' वित्त की उपपत्ति यज्ञ के लिए है; अतः उसे धर्म के उपयोग में लगाना चाहिय , न कि स्त्रियों, मूों एवं अधार्मिक लोगों में उसका दुरुपयोग होना चाहिए ।'४ २ ये बातें कात्यायन (८५२) एवं बृहस्पति में भी पायी जाती हैं । मिताक्षरा ने इस कथन को ग्रहण नहीं किया है। इसका कहना है कि ऐसा मानने पर यज्ञ के अतिरिक्त अन्य दान-कार्य, जिनकी शास्त्रों ने व्यवस्था दी है, सम्भव नहीं हैं और न ऐसा मानने पर अर्थ एवं काम नामक पुरुषार्थों की पूर्ति हो सकती है, जैसी कि गौतम (६४६) एवं याज्ञ० (१।११५) ने व्यवस्था दी है। वास्तव में बात यह है कि यज्ञों के लिए एकत्र की गयी सम्पत्ति के विषय में यह बात कही गयी है, क्योंकि ऐसी सम्पत्ति का उपयोग धार्मिक कृत्यों में ही होना चाहिये, ऐसा न करने से दूसरे जीवन में कौओं या भासों (मुर्गों या जलमुगियों) की योनि मिलती है। मिताक्षरा ने आगे कहा है कि यदि सम्पत्ति को यज्ञार्थ ही माना जायगा तो जैमिनि (३।४।२०-२४) का यह कथन है कि "शरीर पर सोना धारण करना चाहिये" व्यर्थ पड़ जायगा और वह केवल पुरुषार्थ कहा जायगा न कि ऋत्वर्थ । यही बात अपरार्क (पृ० ७४२) ने भी कही है और व्यवस्था दी है कि स्त्रियों को पूर्त धर्म (कूप, मन्दिर आदि का निर्माण) करने का अधिकार है । इष्ट एवं पूर्त के लिए देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २५ । रिक्थाधिकार से वंचित करने के विषय में अत्यन्त ख्यात शब्द मनु (६।२०१), याज्ञ० (२।१४०) एवं नारद (दायभाग, २१-२२) के हैं। मनु का कथन है कि क्लीब, पतित, जन्मान्ध, जन्मबधिर, पागल, मूर्ख, गूंगे एवं इन्द्रियदोषी को अंश (भाग या हिस्सा)नहीं मिलता। याज्ञवल्क्य ने घोषणा की है कि क्लीब, पतित, पतितपुन, पंगु, उन्मत्त (पागल), जड़ (मूर्ख), अन्ध, असाध्य रोगी को अंश नहीं मिलता। ४ ३ याज्ञवल्क्य, बौधायन एवं देवल ने पतित के पुत्र को भी दायांश से वंचित कर रखा है। नारद (दायभाग, २१-२२) ने कहा है कि जो पितृ-द्रोही हैं, पतित हैं, क्लीब हैं, जो (भारत से) दूसरे देश में समुद्र से जाते हैं, वे औरस होते हुए भी दायांश नहीं पाते; क्षेत्रज (दूसरे व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी से उत्पन्न पुत्र) भी इन दुर्गुणों से युक्त होने पर अंश कैसे पा सकता है ? जो लोग दीर्घ काल से राजरोग (यक्ष्मा) से पीड़ित हैं या कुष्ठ-जैसे भयानक रोगों से ग्रस्त हैं या जो मूर्ख, पागल या लंगड़े हैं, उन्हें मात्र भरण ४२. यज्ञार्थ द्रव्यमुत्पन्नं तत्रानधिकृतास्तु ये । अरिक्थमाजस्ते सर्वे ग्रासाच्छादनमाजनाः ॥ यज्ञार्थ विहितं वित्तं तस्मात्तव विनियोजयेत् । स्थानेषु धर्मजुष्टेषु न स्त्रीमूर्खविधर्मिषु ॥ मिताक्षरा (याज्ञ० २११३५); पराशरमाधवीय (३, पृ० ५३४); मिलाइये शान्तिपर्व (२६।२५)--यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा यज्ञाय सृष्टः पुरुषो रक्षिता चे । तस्मात् सर्व यज्ञ एवोपयोज्यं धनं न कामाय हितं प्रशास्तम् ॥ ४३. अनंशी क्लीवपतितो जात्यन्धबधिरौ तथा । उन्मत्तजडम काश्च ये च केचिन्निरिन्द्रियाः॥ मनु (1२०१); क्लीबोथ पतितस्तम्जः पंगुरुन्मत्तको जडः । अन्धोऽचिकित्स्यरोगार्ता भर्तव्याः स्युनिरंशकाः ॥ याज्ञ० (२२१४०); मृते पितरि न क्लीबकुष्ठ्युन्मत्तजडान्धकाः । पतितः पतितापत्यं लिंगी दायांशमागिनः ॥ तेषां पतितवर्जेन्यो भक्तवस्त्रं प्रदीयते । तत्सुताः पितृदायांशं लभेरन् दोषवजिताः॥ देवल (दायभाग ५।११, पृ० १०२, जहां लिंगी का अर्थ प्रवजित आदि किया गया है); विवादरत्नाकर (पृ० ४६०) ने लिंगी को अतिशय कपटव्रतचारी कहा है। स्मृतिच० (२, पृ० २७२); पितृद्विट् पतितः षण्ढो यश्च स्यादौपपातिकः । औरसा अपि नैतेशं लभेरन क्षेत्रजाःकुतः।। वीर्घतीवामयग्रस्ता जडोन्मत्तान्धपंगषः । भर्तव्याः स्युः कुले चैते तत्पुत्रास्त्वंशभागिनः ।। नारद (दायभाग, २१-२२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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