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धर्मशास्त्र का इतिहास यदि किसी की कई पत्नियाँ एवं एक ही पत्नी से कई पुत्र हों तो कई प्राचीन ग्रन्थों के मत से पुत्र पत्नियों एवं माताओं के अनुसार विभाजन करते हैं (पत्नीमाग या मातृमाग), किन्तु मामान्यतः विभाजन पुत्रों की संख्या के अनुसार ही होता रहा है (पुत्रभाग), चाहे वे किसी भी माता के पुत्र हों। उदाहरणार्थ, गौतम (२८।१५) का कहना है कि विभाजन माताओं के पुत्रों को दलों में बांटकर करना चाहिये और प्रत्येक दल के ज्येष्ठ पुत्रों को विशिष्ट अंश मिलना चाहिये । बृहस्पति एवं व्यास के मतों से विभिन्न माताओं से उत्पन्न पुत्रों (जो जाति एवं संख्या में समान हों) को माताओं के अनुसार ही विभाजन-भाग मिलने चाहिये । आजकल भी कहीं-कहीं माताओं के अनुसार कुछ जातियों में परम्पराओं के आधार पर विभाजन होता है ।।७।।
पितामही या बिमाता-पितामही अपने से विभाजन की मांग नहीं कर सकती, किन्तु उसके पौत्रों में विभाजन होते समय या उसके पुत्र के मर जाने या उसके पुत्रों एवं उसके मृत पुत्र के पुत्रों में. जब विभाजन होने लगे तो उसे एक भाग मिलता है। व्यास का कथन है--"पिता की पुत्रहीन पत्नियों को पुत्र के बराबर भाग मिलता है, और सभी पितामहियाँ माता के तुल्य होती हैं ।" प्रयाग एवं बम्बई के न्यायालयों द्वारा यह निर्णीत है कि पुत्र एवं पुत्र के पुत्रों में विभाजन होने पर पितामही को कोई भाग नहीं मिलता, किन्तु कलकत्ता एवं पटना के न्यायालयों ने उसे एक भाग का अधिकार दिया है।
कतिपय शारीरिक, मानसिक एवं अन्य आचरण-सम्बन्धी दुर्गुणों के कारण प्राचीन भारत में कुछ लोग दायभाग से वञ्चित थे। गौतम (२८।४१), आपस्तम्ब (२।६।१४।१), वसिष्ठ (१७१५२-५३), विष्णु (१५।३२-३६), बौधायन (२।२।४३-४६) एवं कौटिल्य (३.५) के अनुसार पागल, जड़, क्लीब, पतित (पापाचारी), अन्धे, असाध्य रोगी और संन्यासी विभाजन एवं रिक्थाधिकार से वञ्चित माने जाते हैं ।३८ ऐसा इसलिए किया गया है कि ये लोग धार्मिक कार्य नहीं कर सकते और सम्पत्ति तथा उसके साथ धार्मिक उपयोग का सम्बन्ध अटूट माना जाता रहा है। और देखिये जैमिनि ।३६ बृहद्देवता में वर्णित देवापि एवं शन्तनु नामक भाइयों की गाथा से प्रकट है कि देवापि को चर्मरोग था, अतः उसके भाई शन्तनु को राज्य मिला।४० हम लोग महाभारत से जानते हैं कि धृतराष्ट्र जन्मान्ध होने के कारण राज्य नहीं पा सके और उनके छोटे भाई पाण्डु को राज्य मिला ।४१ मिताक्षरा (याज्ञ० २।१३५) ने अपने
३७. समानजातिसंख्या ये जातास्त्वेकेन सूनवः । विभिन्नमातृकास्तेषां मातृभागः प्रशस्यते । व्यास; यधेकजाता बहवः समाना जातिसंख्यया । सापत्न्यातविभक्तव्यं मातृभागेन धर्मतः। बृहस्पति (दायमाग ३।१२; पराशरमाधवीय ३, पृ० ५०३; व्यवहारमयूख पृ० १०२; विवादरत्नाकर पृ० ४७५) ।
३८. जडक्लीबी भर्तव्यो । गौ० (२८।४१); एकधनेन ज्येष्ठं तोषयित्वा जीवन् पुत्रेभ्यो वायं विभजेत् समं क्लीबमुन्मत्त पतितं च परिहाप्य । आप० (२।६।१४।१); अतीतव्यवहारान्नासाच्छादनैबिभृयुः । अन्धजडल्लीबव्यसनिव्याधितांश्च । अमिणः । पतिततज्जातवर्जम् । बौधा० (२।२।४३-४६); अनंशास्त्वाश्रमान्तरगताः । क्लीबोन्मत्तपतिताश्च । वसिष्ठ (१७३५२-५३); पतितक्लीबाचिकित्स्यरोगविकलास्त्वभागहारिणः । विष्णु० (१५३२): पतितः पतिताज्जाताः क्लीबाश्चानंशाः । जडोन्मत्तान्धकुण्ठिनश्च । अर्थशास्त्र (३५) । ___३६. अंगहीनश्च तद्धर्मा । उत्पत्तौ नित्यसंयोगात् । जैमिनि (६।१।४१-४२) ।
४०. त्वग्दोषी राजपुत्रश्च ऋष्टिषेणसुतोऽभवत् । बृहद्देवता (७/१५६);न राज्यमहमहामि त्वग्दोषोपहतेन्द्रियः । बृहद्देवता (८५)।
४१. अन्धः करणहीनत्वान्न वै राजा पिता तव । उद्योगपर्व (१४७।३६); घृतराष्ट्र के जन्मान्ध होने के लिए देखिये आदिपर्व (१०६) ।
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