SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभाजन में स्त्रियों का अधिकार ८६३ धन की सम्पत्ति पर भोग का अधिकार नहीं रखतीं, किन्तु यदि स्त्रीधन हो तो उन्हें उतना ही और अधिक प्राप्त होगा जितना मिलकर एक पुत्र के भाग के बराबर हो जाय (याज्ञ ० २।१४८) । मिताक्षरा (याज्ञ० २१५१) ने कहा है कि पति की इच्छा से पत्नी कुल-सम्पत्ति का भाग पा सकती है किन्तु अपनी इच्छा से नहीं। बात यह है कि वास्तव में पति-पत्नी में विभाजन नहीं होता ('जायापत्योर्न विभागो विद्यते,' मदनरत्न, व्यवहारप्रकाश प०४४१-४४२, ५१० एवं विश्वरूप--याज्ञ ० २।११६) । पति पत्नी को स्नेहवश एक भाग दे सकता है। मानो, विश्वरूप (याज्ञ० २।११६) ने आधुनिक विधान की परिकल्पना पहले से कर ली थी, क्योंकि उन्होंने लिखा है कि पहले से मृत पुत्रों एवं पौत्रों की पत्नियों को वे भाग मिलने चाहिए जो उनके पतियों को दाय रूप में प्राप्त होते, क्योंकि उनके पतियों को जीवित रहने पर पिता के साथ किये गये विभाजन में अधिकार तो प्राप्त होता ही। देखिये आज का कानून (१६३७ का कानून जो १६३८ में संशोधित किया गया; हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति-अधिकार)। इससे मिताक्षरा की "केवल पुरुषों को ही संयुक्त परिवार का भाग मिलना चाहिये", वाली प्राचीन व्यवस्था समाप्त हो गयी। __ माता (या बिमाता) भी पिता के मृत हो जाने के उपरान्त पुत्रों के दाय-विभाजन के समय एक बराबर भाग की अधिकारिणी होती है, किन्तु जब तक पुत्र संयुक्त रहते हैं, वह विभाजन की मांग नहीं कर सकती। किन्तु पत्नी के समान ही यदि उसके पास स्त्रीधन होगा तो उसका दाय-भाग भी उसी के अनुपात में कम हो जायगा। देखिये याज्ञ० (२।१२३), विष्णु० (१८।३४) एवं नारद (दायभाग, १२) । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१३५) ने अपने पूर्व के लेखकों के इस मत का खण्डन किया है कि माता को केवल जीविका के साधन मात्र प्राप्त होते हैं । स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २६८) के इस कथन की, कि माता को दायभाग नहीं मिलता, मदन रत्न ने आलोचना की है। बौधायन ने लिखा है कि "स्त्रियाँ शक्तिहीन होती हैं और उन्हें भाग नहीं मिलता" (तैत्तिरीय संहिता, ६।५।८।२) । इस कथन के आधार पर व्यवहारसार (पृ० २२५) एवं विवादचन्द्र (पृ.० ६७) ने मत प्रकाशित किया है कि किसी स्त्री (चाहे पत्नी हो या माता हो) को पैतृक सम्पत्ति में अधिकार नहीं प्राप्त होता। मनु (६।१८) में भी तैत्तिरीय संहिता एवं बौधायन के कथन की झलक मिलती है । ३६ पत्नी या माता के अधिकारों के विकास में एक मध्यम स्तर भी था। व्यास (स्मृतिचं० २,२८१; व्यवहारनिर्णय पृ० ४५० ; विश्वरूप--याज्ञ ० २।११६) के मत से पत्नी को अधिकतम दो सहस्र पण मिल सकते हैं, किन्तु इसे कई प्रकार से पढ़ा एवं समझाया गया है । स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २८१) का कहना है कि यह उस सम्पत्ति का द्योतक है जिससे प्रति वर्ष २००० पणों की आय प्राप्त हो। .. आधुनिक काल में बम्बई एवं कलकत्ता के उच्च न्यायालयों ने पैतृक सम्पत्ति के बंटवारे के समय पत्नियों एव माताओं के भागों को भी मान्यता दी है, किन्तु दक्षिण भारत में उनको भाग नहीं मिलता, मद्रास न्यायालय ने केवल जीविका की व्यवस्था दी है । दायभाग में भी यही बात झलकती है, इसके अनुसार विमाता को विमाता-पुत्नों के विभाजन के समय जीविका मात्र प्राप्त होती है। ३६. स्त्रीणां सर्वासामनंशत्वमेव । यत्राप्यशश्रवणं पितुरूवं विभजतां माताप्यंशं समं हरेदित्यादौ तत्रापि किञ्चिद्दनं विवक्षितम् । अहंति स्त्रीत्यनुवृत्तौ न दायम् 'निरिन्द्रिया अदाया हि स्त्रियो मताः' इति बौधायनवचनात् । निरिन्द्रिया निःसत्त्वा इति प्रकाशः । अदाया अनंशा इत्यर्थः । विवादचन्द्र (पृ.० ६७) । स्मृतिचन्द्रिका(२, पृ० २६७) भी बौधायन पर निर्भर है । बौधायन (२।२।५३) में "पिता रक्षति..."न स्त्री स्वातन्त्र्यमहति" के उपरान्त "निरिन्द्रिया ह्यदायाश्च स्त्रियो मता इति श्रुतिः', आया है । तैत्तिरीय संहिता (६।५।८।२) में आया है---"तस्मात् स्त्रियो निरिन्द्रिया अदायावीरपि पापात्पुस उपस्तितरं वदन्ति ।" मनु (१८) में आया है--"निरिन्द्रिया ह्यमत्राश्च स्त्रियोऽन्तमिति स्थितिः ॥" जिसकी व्याख्या मेधातिथि ने यों की है--"इन्द्रियं वीर्यधैर्यप्रज्ञाबलादि।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy