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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ परिस्थितियों में अनौरस पुत्र को अपने ज्ञात पिता की सम्पत्ति के विभाजन में अधिकार प्राप्त है । अनौरस पुत्र किसी रखेल (जो दासी है और लगातार साथ रहती आयी है) का पुत्र हो सकता है या वह ऐसी नारी का पुत्र हो मकता है जो दासी न हो । पहले को दासीपुत्र की संज्ञा मिली है और दूसरे का धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में वर्णन नहीं - सा मिलता । ३४ अति प्राचीन काल से यह व्यवस्था रही है कि द्विजों के दासीपुत्र को विभाजन या उत्तराधिकार का हक नहीं मिलना चाहिये, उसे केवल जीविका के साधन मात्र उपलब्ध होते हैं । गौतम ( २८|३७ ) का कहना है कि शिष्य के समान आज्ञाकारी रहने पर शूद्रा रखेल के पुत्र को केवल जीवन-यापन के लिए अधिकार मिलता है, भले ही उसका ब्राह्मण पिता पुत्रहीन हो । यही बात पिता की मृत्यु के उपरान्त शूद्रापुत्र के लिए बृहस्पति ने भी कही हैं । ३५ मनु (६।१६६) ने दासी से उत्पन्न शूद्रपुत्र को पिता की सम्पत्तिका भाग दिया है (यदि पिता चाहे तो ऐसा हो सकता है) । देखिए याज्ञ० (२।१३३ - १३४), व्यवहारमयूख ( पृ० १०३ - १०४ ) । कुछ बातें निम्न हैं-- ( १ ) मिताक्षरा के अनुसार शूद्र का अनौरस पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति में जन्म से कोई अधिकार नहीं पाता, अतः पिता के रहते विभाजन की माँग नही कर सकता, भले ही उसका भाग औरस पुत्र के भाग के बराबर हो; (२) पिता के मर जाने पर मृत शूद्र का अनौरस पुत्र अन्य औरस पुत्रों के साथ सहभागी हो जाता है और उसे विभाजन का अधिकार प्राप्त रहता है; (३) विभाजन पर अनौरस पुत्र को उस भाग का केवल आधा मिलता है जितना उसे यदि वह औरस होता तो मिलता, अर्थात् यदि एक औरस पुत्र हो और दूसरा अनौरस तो अनौरस को एक चौथाई तथा औरस को तीन चौथाई मिलेगा; (४) यदि विभाजन के पूर्व औरस पुत्र मर जाय ( या सभी औरस पुत मर जायं ) तो अनौरस पुत्र को सम्पूर्ण दाय मिल जाता है; (५) यदि शूद्र पिता को कोई पुत्र, पौत्र या प्रपोत्न न हों तो अनौरस को सम्पूर्ण प्राप्त हो जाता है; ( ६ ) याज्ञवल्क्य ने केवल पुत्र की बात की है, अतः अनौरस पुत्री को न तो उत्तराधिकार मिलता है और न जीविका ; ( ७ ) यदि शूद्र पिता अपने भाइयों, चाचाओं या भतीजों के साथ संयुक्त हो तो अनौरस पुत्र को संयुक्त सम्पत्ति के विभाजन की माँग करने का कोई अधिकार नहीं है, यद्यपि उसे परिवार के सदस्य के रूप में जीविका के साधनों का अधिकार प्राप्त रहता है, किन्तु यह नियम तभी लागू होता है जब कि पिता की अपनी पृथक् सम्पत्ति न हो। ऐसा माना गया है कि यदि किसी ब्राह्मणी को कोई शूद्र अपनी रखैल के रूप में रखे तो उसका पुत्र दासीपुत्र नहीं कहा जायगा ( वह प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार चाण्डाल कहा जाता है) और उसे अपने शुद्ध पिता की सम्पत्ति उत्तराधिकार के रूप में नहीं मिलेगी । ८६२ अनुपस्थित सहभागी की वही स्थिति होती है जो एक अल्पवयस्क (नाबालिग ) पुत्र की रहती है । आजकल उसके अधिकार भारतीय संयुक्तता विधान (१६०८ ) के अन्तर्गत पाये जाते हैं । पत्नी को विभाजन की माँग का कोई अधिकार नहीं है। किन्तु याज्ञ० (२।११५) के मत से यदि पिता के रहते पुत्र विभाजन की माँग करें तो पत्नी को पुत्र के समान ही एक भाग मिलता है। यदि कई पत्नियाँ हों तो प्रत्येक को एक पुत्र के बराबर का भाग मिलता है। ऐसी व्यवस्था है कि पत्नी या पत्नियाँ पति या श्वशुर द्वारा प्रदत्त स्त्री ३४. दासीपुत्र की चर्चा कवष ऐलूष की गाथा के सिलसिले में मिलती है । देखिए ऐतरेय ब्राह्मण ( ८1१ ), शांखायन ब्राह्मण (१२।३), एवं ताण्ड्य ब्राह्मण (१४/६/६ ) जहां शूद्रापुत्र की चर्चा है। ३५. शूद्रापुत्रोऽप्यनपत्यस्य शुश्रूषुश्चेल्लभंत वृत्तिमूलमन्तेवासिविधिना । गौतम ( २८|३७ ); अनपत्यस्य शुश्रूषुर्गुणवान् शूद्रयोनिजः । लभेत जीवनं शेषं सपिण्डाः समवाप्नुयुः । बृहस्पति ( दायभाग ६।२८, २० १४१; व्यबहारनिर्णय पृ० ४३० ) 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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