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सहभागियों एवं गौण पुत्रों में सम्पत्ति का विभाजन
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गर्भ में आ जाय तो गौतम (२८।२७), मनु (६२१६), याज्ञ० (२।१२२), नारद (दायमाग ४४), बृहस्पति का कथन है कि उसे पिता को दिया गर 'भाग तथा विभाजन के उपरान्त पिता की स्वाजित सम्पत्ति मिल जाती है। ३२
वह दत्तक पुत्र , जो संयुक्त परिवार के किसी सहभागी द्वारा गोद लिया जाय या किसी एक मात्र भागी द्वारा गोद लिया जाय, मिताक्षरा व्यवहार के अनुसार सहभागिता का सदस्य हो जाता है तथा औरस पुत्र के समान ही विभाजन की माँग का अधिकारी होता है । दायभाग के अन्तर्गत पिता के रहते औरस पुत्र को विभाजन का अधिकार नहीं प्राप्त रहता, दत्तक पुत्र की तो बात ही अलग है। यदि गोद लेने के उपरान्त औरस पुन की उत्पत्ति हो जाय तो दत्तक पुन का भाग, अधिकांश टीकाकारों के मत से, कम हो जाता है। इस विषय में हम आगे के अध्याय में लिखेंगे।
पिता से हीन जाति की पत्नियों से उत्पन्न पून एवं पूत्रों के अधिकारों के विषय में स्मतियों एवं मध्यकाल के निबन्धों में विस्तार के साथ विवेचन प्राप्त होता है, देखिये गौतम (२८१३३-३७), बौधायन (२१२११०). कौटिल्य (३६), वसिष्ठ (१७।१८-५०), मनु (६१४६-१५५), याज्ञ० (२।१२५), विष्णु० (१८।१-३३), नारद (दायभाग १४), बृहस्पति, शंख (व्यवहाररत्नाकर पृ० ५३१) । यहाँ पर विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि कतिपय शताब्दियों से हीन जातियों के साथ विवाह की परम्पराएं नहीं-सी पायी जाती रही हैं । दो-एक बातें यहाँ दी जा रही हैं । मनु (६।१५३), याज्ञ० (२।१२५) एवं बृहस्पति के अनुसार यदि किसी ब्राह्मण को चारों जातियों से पुत्र हों तो सारी सम्पत्ति दस भागों में बँट जाती है और निम्न रूप से बँटवारा होता है; ब्राह्मणी से उत्पन्न पुत्रों को चार भाग, क्षत्रिय पत्नी के पुत्रों को तीन भाग, वैश्य पत्नी के पुत्रों को दो भाग तथा शुद्रा पत्नी के पुत्रों को एक भाग। और देखिए मनु (६।१५४) एवं अनुशासनपर्व (४७।२१) । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१२५) का कथन है कि क्षत्रिय पत्नी के पुत्रों को दान से प्राप्त भूमि का भाग नहीं मिलता, किन्तु क्रय की हुई भूमि का भाग मिलता है । और देखिये व्यवहाररत्नाकर (पृ० ५३४) एवं व्यवहारप्रकाश (पृ० ४६६) । कौटिल्य (३।६) एवं बृहस्पति के अनुसार पारशव पुन को पिता की सम्पत्ति का १/२ भाग तथा निकटतम सपिण्ड को २/३ भाग मिलता है। और देखिये मेधातिथि (मन ६१५५) । मन (१७८ एवं १६०) के मत में शद्रा पत्नी से उत्पन्न ब्राह्मण के पुत्र को शौद्र या पारशव कहा जाता है, किन्तु याज्ञः ( १) ने इसे निषाद एवं पारशव दोनों कहा है। किन्तु मन (६१८०) एवं अन्य लोगों ने ऐसे पुत्र को गौण-पुत्रों में परिगणित किया है। अपरार्क के उपरान्त के सभी लेखकों ने शौनक के वचन उद्धृत कर कहा है कि बहुत-सी बातें कलिवर्ण्य है और इन्हीं कलिवर्य बातों में, औरस एवं दत्तक पुत्रों के अतिरिक्त, अन्य प्रकार के पुत्र भी हैं।३३
३२. पितृविभक्ता विभागान्तरोत्पन्नस्य भागं दधुः । विष्णुधर्मसूत्र (१७॥३); दृश्याद्वा तद्विभागः स्यादायव्ययविशोषितात् । याज्ञ० (२।१२२), जिस पर मिताक्षरा का यह कथन है--"एतच्च विभागसमयेऽप्रजस्य भ्रातुर्भार्यायामस्पष्टगर्भायां विभागादूर्ध्वमुत्पन्नस्यापि वेदितव्यम् । स्पष्टगर्भायां तु प्रसवं प्रतीक्ष्य विभागः कर्तव्यः । यथाह वसिष्ठः-अथ भ्रातृणां वायविभागः। याश्चानपत्याः स्त्रियस्तासामापुत्रलाभात् । इति"; विभक्तजः पित्र्यमेव । गौ० (२८१२७); पुत्रैः सह विभक्तेन पित्रा यत्स्वयमजितम् । विभक्तजस्य तत्सर्वमनीशाः पूर्वजाः स्मृताः। बृह० (मिताक्षरा, याज्ञ० २।१२२; हरवत्त, गौतम० २८।२७; स्मृतिच० २, पृ० ३-७; दायभाग ७, पु० १३१; व्यव० मयूख पृ० १०४)।
३३. अतएव कलौ निवर्तन्ते इत्यनुवृत्त्या शौनकेनोक्तम् 'दत्तौरसेतरेषां तु पुत्रत्वेन परिग्रहः' इति । अपराक (१० ७३६) । और देखियं पराशरमाधवीय (११२, पृ० ८७); व्यवहारमयूख (पृ० १०७), 'अत्र दत्तकभिन्ना गौणाः पुत्राः कलो वाः । वत्तौरसेतरेषां तु पुत्रत्वेन परिग्रह इति तनिषेधेषु पाठात् ।'
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