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धर्मशास्त्र का इतिहास के न रहते हुए भी अलग कर सकता है (याज्ञ० २११४); किन्तु कोई अन्य सहभागी ऐसा नहीं कर सकता, वह यदि चाहे तो अपने को परिवार से अलग कर सकता है। पिता सीमा के भीतर पैतृ कचल सम्पत्ति मे कर्तव्य के अपरिहार्य काम या स्मृतियों द्वारा निर्धारित दान (पत्नी, पुत्री या पुत्र को स्नेह-वश) तथा परिवार-पालन के लिए (आपत्तिकाल में) व्यय आदि बिना पुत्रों से पूछे भी कर सकता है किन्तु सीमा के भीतर वह अचल सम्पत्ति से भी पुनीत कार्य (परिवार की मूर्ति या मन्दिर-मूर्ति या अन्त्येष्टि क्रिया के समय मूर्ति स्थापना आदि के लिए) कर सकता है। पिता अपने लिए लिया गया ऋण देने के लिए (यदि ऋण अवैधानिक एवं अनैतिक कार्यों के लिए न लिया गया हो तो) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति बेच सकता है या बन्धक रख सकता है। मिताक्षरा के मत से कोई सहभागी बिना अन्य सहभागियों की सहमति के अविभाजित भाग को दान, बिक्री या बन्धक के रूप में नहीं दे सकता। यह एक अन्य विशेषता है जो मिताक्षरा के मत से संयुक्त हिन्दू परिवार में पायी जाती है । यह बात बृहस्पति ने भी कही है किन्तु आधुनिक काल में बम्बई, मद्रास, मध्य प्रदेश की अदालतों ने इस नियम में ढिलाई दे दी है, अर्थात सहभागी अपना अविभाजित भाग बन्धक रूप में दे सकता है, बेच सकता है और ऋणदाता अपना ऋण लेने के लिए उनके संयुक्त परिवार से नियमानुकूल माँग कर सकता है । यह एक गम्भीर परिवर्तन है। संयुक्त परिवार के सदस्यों का एक अधिकार यह भी है कि वे अपनी जीविका के लिए संयुक्त सम्पत्ति पर अपना अधिकार रखते हैं।
. दायभाग के अन्तर्गत उपर्युक्त विषयों में मिताक्षरा से सर्वथा भिन्न मत पाया जाता है । इसके अनुसार पुत्रों को पैतृक सम्पत्तिपर जन्म से अधिकार नहीं प्राप्त होता, वे पिता की मृत्यु के उपरान्त ही सर्वप्रथम दाय के अधिकारी होते हैं । स्पष्ट है, इसमें मिताक्षरा के अर्थ में, पिता एवं पुत्रों के बीच किसी प्रकार की सहभागिता नहीं पायी जाती। पिता को पैतृक सम्पत्ति बेच देने, बन्धक रखने,दान में देने या इच्छानुसार किसी भी प्रकार उसे व्यय कर देने का सम्पूर्ण अधिकार है। उसके जीवन-काल तक पुत्रों को विभाजन के लिए मांग करने का कोई अधिकार नहीं है। पिता के मर जाने पर उसके पुत्रों या पौत्रों में सहभागिता के अधिकार का उदय होता है अर्थात् तभी भाइयों,चाचाओं एवं भतीजों या चचेरे भाइयों में सहभागिता जागती है । यदि कोई सहभागी पत्रहीन ही मर जाता है तो अन्य सहभागियों को उसका अधिकार नहीं मिलता, प्रत्युत मृत व्यक्ति की विधवा या पुत्री उसका भाग प्राप्त कर सकती है। अत: दायभाग के अन्तर्गत स्त्रियों को भी सहभागिता की सदस्यता प्राप्त हो जाती है। दायभाग के मत से प्रत्येक हिस्सेदार को निश्चित भाग की उपलब्धि होती है (अनिश्चित भाग नहीं, जैसा कि मिताक्षरा में पाया जात अनुसार कोई भी सहभागी अपना भाग बेच सकता है, उसको बन्धक रख सकता है या उसका दान कर सकता है या स्वेच्छा से किसी को दे सकता है (दायभाग २।२८।३१) ।
विभाजन होने पर प्रत्येक सहभागी को एक भाग मिलता है । बम्बई प्रान्त में यदि पिता अपने पिता,भाइयों या अन्य सहभागियों से संयुक्त हो और पुत्र के अधिकार की स्वीकृति नहीं दे तो उसके पुत्र को बिभाजन का अधिकार नहीं मिलता। यदि लड़का अभी गर्भ में हो और विभाजन हो रहा हो तो उसे स्मृतियों ने अधिकार दे रखा है। यदि क तथा उसके पुत्र ख एवं ग (जो संयुक्त परिवार के सदस्य हैं)विभाजन करें और परिवार की सम्पति का एक तिहाई प्रत्येक को मिले और छ:मास के उपरान्त यदि क की पत्नी को घ पत्र उत्पन्न हो जाय तो विभाजन-कार्य फिर से होगा और उसे कुल-सम्पत्ति का १४ भाग (यदि माता को भाग मिला हो तो केवल १/५ भाग) मिलेगा, किन्तु इस अवधि में हुए सारे आय-व्यय का ब्यौरा ले लेने के उपरान्त ही बँटवारा होगा। यही नियम उन भाइयों के बीच में लागू होगा जब किसी मृत भाई की विधवा को जो विभाजन के समय गर्भवती रही हो, पुत्र उत्पन्न हो जाय । देखिये याज्ञ० (२११२२) एवं विष्णु (१७१३)। इससे वसिष्ठ (१७।४०।४१) ने व्यवस्था दो है कि यदि मृत भाइयों की पत्नियाँ गर्भवती हों तो पुत्रोत्पत्ति होने तक विभाजन-कार्य स्थगित रखना चाहिये । यदि विभाजन के उपरान्त पुन उत्पन्न हो या
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