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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास कौटिल्य ( ३।५ ) का कथन है कि जो आचार्य कहते हैं कि दरिद्र लोग अपने जलपानों को भी बाँट सकते हैं, वे विरोधी बातें करते हैं । कात्यायन (८८२ - ८८४ ) ने बहुत-सी वस्तुओं को अविभाज्य ठहराया है, यथा-"वह धन जो धार्मिक उपयोग के लिए अलग कर दिया गया है और उसका उल्लेख, पत्र में लेख प्रमाण के रूप में कर दिया गया है, जल, स्त्रियाँ, निबन्ध ( आवधिक लाभ ) जो दाय के रूप में चलता आया है, वस्त्र ( प्रति दिन काम में लाये जानेवाले), अलंकार तथा वस्तुएँ जो विभाजन के योग्य नहीं हैं एक साथ (संयुक्त रूप में) उचित समय पर उपयोग में लायी जानी चाहिये । चरागाह, मार्ग, प्रति दिन उपयोग के वस्त्र, उधार दिये गये धन, धार्मिक कार्य के लिए निर्दिष्ट धन आदि का बँटवारा नहीं होना चाहिये । ये बृहस्पति वचन हैं ।" ६५८ बृहस्पति ने अविभाज्य वस्तुओं के विषय में बहुत कुछ कहा है। उन्होंने मनु ( ६ । २१६ ) की आलोचना की है और कहा है कि वस्त्र, अलंकार आदि भी विभाज्य हैं । वे कहते हैं; "जो लोग वस्त्रादि को अविभाज्य मानते हैं, उन्होंने ठीक से विचार नहीं किया है । धनिकों के लिए उनके वस्त्र एवं आभूषण ही धन का रूप पा सकते हैं। यदि ये वस्तुएँ सयुक्त रखी जायें (विभाजित न हों) तो उनसे जीविका नहीं चल सकती, उन्हें किसी एक ही सदस्य को नहीं दिया जा सकता। उनका दक्षता के साथ विभाजन होना चाहिये, नहीं तो वे निरर्थक सिद्ध होंगी । वस्त्रों एवं अलंकारों का विभाजन बेचकर (बिक्री के धन से ) किया जा सकता है, लिखित ऋण को प्राप्त कर बाँट देना चाहिये । पके भोजन को अनपके भोजन से परिवर्तित कर बाँटा जा सकता है। सीढ़ियों वाले कूपों अर्थात् बावलियों एवं अन्य कूपों को आवश्यकतानुसार उपयोग में लाना चाहिये । इसी प्रकार क्षेत्र (खेत) एवं सेतु (बाँध ) को भाग के 'अनुसार बाँट देना चाहिये । भाग के अनुसार ही एक ही नौकरानी से कार्य लेना चाहिये, यदि कई हों तो उनका बराबर-बराबर बँटवारा होना चाहिये । यही नियम पुरुष नौकरों के लिए भी है। योगक्षेम वाले दान से प्राप्त धन सम भाग में बांट देना चाहिये । चरागाह या आने-जाने के मार्गो का उपयोग भाग के अनुसार ही होना चाहिये । देखिये अपरार्क ( पृ० ७२६), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २७७ ) एवं विवादरत्नाकर (पु० ५०५ - ५०६ ) ।३१ aa आगे के विचारणीय विषय हैं; किन लोगों में विभाजन होना चाहिये ? विभाजन की विधि क्या है?. किन्तु और कुछ कहने के पूर्व हिन्दू व्यवहार (कानून) में प्रयुक्त होनेवाले कुछ शब्दों के विषय में कुछ जान लेना आवश्यक है । स्मृतियों एवं टीकाओं में कुटुम्ब (नारद, दत्ताप्रदानिक ६, या याज्ञ० २०१७५) या अविभक्त कुटुम्ब (याज्ञ० २।४५) शब्द आये हैं । एक संयुक्त हिन्दू परिवार में वे सभी पुरुष आते हैं जो किसी एक पुरुष पूर्वज के उत्तराधिकारी होते हैं, उनके साथ उनकी पत्नियां एवं कुमारी कन्याएँ भी सम्मिलित रहती हैं। विवाहोपरान्त कन्या पिता के परिवार की न होकर अपने पति के परिवार की सदस्य हो जाती है । मिताक्षरा के अन्तर्गत समांशी परिवार संयुक्त." परिवार से अपेक्षाकृत संकीर्ण अर्थ रखता है। इसमें केवल वे पुरुष सदस्य सम्मिलित होते हैं जो जन्म से ही संयुक्त अथवा समांशी का अधिकार रखते हैं, यथा---स्वयं व्यक्ति, उसके पुत्र, उसके पुत्रों के पुत्र, पुत्रों के पौत्र । देखिये आगे का चित्र- ३१. बृहस्पति ने सामान्यतः मनु को बहुत ऊँची दृष्टि से देखा है, यथा--- वेदार्थोपनिबन्धृत्वात् प्राधान्य तु मनुस्मृतौ । मन्वर्थविपरीता या स्मृतिः सा न प्रशस्यते ।। देखिए अपरार्क ( पृ० ६२८) एवं कुल्लूक (मनु १1१ ) | किन्तु यहाँ पर उन्होंने मनु (६ । २१६) की कटु आलोचना की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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