________________
अविभाज्य वस्तुएं मनु (६२१६=विष्णु १८।४४) का कथन है; "वस्त्र, पत्र (यान), अलंकार, पके भोजन, जल (कूप आदि), स्त्रियों एवं प्रचार या मार्ग (रास्ता) का विभाजन नहीं होता ।"२८ यदि वस्त्र बहुमूल्य एवं नये न हों, तो सभी टीकाकारों के मत से वे ऐसे वस्त्र हैं जिन्हें सदस्य लोग प्रति दिन प्रयोग में लाते हैं। यही बात यानों एवं अलंकारों के विषय में भी कही गयी है । 'प्रचार' का तात्पर्य या तो "घर, वाटिका आदि की ओर जाने वाले मार्ग" (मिताक्षरा, अपरार्क एवं व्यवहारप्रकाश) है या गायों आदि के लिए मार्ग या चरागाह" (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २७७, कुल्लूक) है। मिताक्षरा (याज्ञ० २।११८-११६)ने बृहस्पति का एक नियम उद्धृत किया है, जिसके अनुसार पिता द्वारा प्रयुक्त वस्त्र, अलंकार, शय्या, यान आदि मृत्यु के उपरान्त श्राद्ध के समय आमन्त्रित ब्राह्मण को दिये जाने चाहिये। कूप का उपयोग बारी-बारी से होना चाहिये, न कि मूल्य लगाकर उसका बंटवारा होना चाहिये । यदि नौकरानी (रखैल नहीं) एक ही हो तो उससे बारी-बारी से काम लेना चाहिये, यदि कई हों तो उनका बँटवारा हो सकता है या उनके मूल्य का बंटवारा हो सकता है।
योगक्षेम शब्द बहुत प्राचीन काल से कई अर्थों में लिया जाता रहा है। मिताक्षरा ने लोगाक्षि को उद्धृत कर व्यक्त किया है कि योगक्षेम का अर्थ है श्रोत एवं स्मार्त अग्नि में किये गये यज्ञ आदि कर्म तथा दानदक्षिणासम्बन्धी कर्म, यथा कूप, वापी आदि का निर्माण। देखिये इष्ट एवं पूर्त तथा मिताक्षरा द्वारा प्रयुक्त योगक्षेम के अर्थ के लिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ३, २५ एवं २६ । 'योग' एवं 'क्षेम'शब्द ऋग्वेद (७।८६८, १०८६१०, १०॥ १६६।५) तैत्तिरीय संहिता (३६१६१३) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (३७४२) में भी आये हैं। मिताक्षरा ने लिखा है कि कुछ लोगों के मत से 'योगक्षेम' का अर्थ है "राजमन्त्री एवं राजपुरोहित आदि" जो प्रजा का कल्याण-कार्य करते हैं तथा कुछ लोगों के मत से इसका अर्थ है "छन्न, चमर, शस्त्र, आदि" ।२१ गौतम (६६२ एवं ११:१६) से पता चलता है कि योगक्षेम का अर्थ है "आनन्दप्रद जीवन" या "जीविका के सरल एवं सुखद मार्ग (विशेषतः विद्वान् ब्राह्मण के लिए)" और यह अर्थ उनके पहले से प्रयुक्त होता रहा है । विवादरत्नाकर (पृ० ५०४) का कथन है कि प्रकाश के मत से योगक्षेम का अर्थ है "राजकुल में पिता से पुत्र तक चला आता हुआ जीविका-साधन" तथा हलायुध के मत से 'योग' का अर्थ है पोत या नौका तथा 'क्षेम' का अर्थ है दुर्ग । स्मृति चन्द्रिका (२, पृ० २७७) ने लोगाक्षि को उद्धृत कर एक वैकल्पिक अर्थ यह दिया है-"योगक्षेम का तात्पर्य है वह धन जो किसी विद्वान् ब्राह्मण द्वारा किसी धनी व्यक्ति के यहाँ रहने से जीविका के रूप में प्राप्त किया जाता है ।"३०
२८. वस्त्रं पत्रमलंकारं कृतानमुदकं स्त्रियः । योगक्षेमप्रचारं च न विमाज्यं प्रचक्षते ।। मनु (३।२१६); विष्णु ने "न विभाज्यं च पुस्तकम्" ऐसा पढ़ा है । इससे स्पण्ट है कि विष्णु से मनु पुराने हैं । 'पत्र', 'योगक्षेम' एवं 'प्रचार' के कई अर्थ किये गये हैं । नन्दन के अतिरिक्त मनु के अन्य टीकाकारों ने 'पत्र' को 'यान' (घोड़ा, गाड़ी आदि) के अर्थ में लिया है । नन्दन ने इसे 'पात्र' पढ़ा है। अपरार्क (पृ० ७२५), विवादरत्नाकर (५०४), मदनपारिजात (पृ० ६२५) ने 'पत्र' को ऋण के लेख्यप्रमाण के रूप में लिया है।
२६. योगक्षेमशब्देन योगक्षेमकारिणो राजमन्त्रिपुरोहितादय उच्यन्त इति केचित् । छत्रचामरशस्त्रोपानरप्रभृतय इत्यन्ये । मिता० (यान० २।११६) ।
३०. योगक्षेमं पितृक्रमेण राजकुलादावुपजीव्यमिति प्रकाशः । हलायुधस्तु योगोयोगहेतुनौकादिः क्षेमः क्षेमहेतुर्दुर्गादीत्याह । विवादरत्नाकर (५०४) । अथवा योगक्षेमार्थमुपासितेश्वरसकाशाद् यो रिक्यानां लाभः स एवात्र योगक्षेमशम्देनोच्यते। स्मृतिचन्द्रिका २ पृ० २७७; गौतम (६३) एवं विष्णु (६३।१ ) में आया है "योगक्षेमार्थमीश्वरमधिगच्छेत् ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org