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धर्मशास्त्र का इतिहास
कात्यायन (८६७-८७३) ने विद्याधन को इस प्रकार समझाया है--"वही धन विद्याधन है जो दूसरे के यहाँ खा-पीकर किसी अन्य से विद्या प्राप्त करने के उपरान्त उसके उपयोग से प्राप्त होता है, जो किसी मामले को सुलझाने के कारण अपनी विद्या से प्राप्त हो वही विद्याधन है और उसका विभाजन नहीं होता । जो धन शिष्यों से प्राप्त होता है (अध्यापन-कार्य से प्राप्त होता है), जो किसी यज्ञ में पुरोहितो करने से प्राप्त होता है, जो प्रश्न करने तथा सन्देह दूर करने से प्राप्त होता है, जो अपने ज्ञान के प्रकाश करने से प्राप्त होता है, वह सब विद्याधन की संज्ञा पाता है और विभाजन के समय बाँटा नहीं जाता । यही बात शिल्पियों के विषय में भी है, जो कुछ उन्हें वस्तु-मूल्य के उपरान्त पुरस्कार के रूप में प्राप्त होता है वह स्वाजित माना जाता है । बाजी लगने पर उत्तम ज्ञान के कारण जो प्राप्त होता है वह भी विद्याधन है और उसका विभाजन नहीं होता ऐसा बृहस्पति ने कहा है। भृगु ने भी इसी प्रकार विद्या प्रतिज्ञा (विद्या की महत्ता के प्रकाशन) से प्राप्त, शिष्य, पुरोहिती आदि से प्राप्त धन को विद्याधन कहा है। विद्याबल, यजमानकार्य एवं शिष्यों से जो कुछ प्राप्त होता है वह विद्याधन घोषित होता है । इस प्रकार की प्राप्ति के अतिरिक्त जो कुछ प्राप्त होता है वह सामान्यत: संयुक्त रूप में सब सदस्यों का होता है।
कात्यायन ने शौर्यधन (वह धन जो राजा या स्वामी द्वारा किसी सैनिक या नौकर को प्राणों की बाजी लगाकर शूरता प्रदर्शित करने पर पुरस्कार-स्वरूप दिया जाता है) एवं ध्वजाहत (जो कुछ प्राणों की बाजी लगाकर यद्ध में अथवा शत्र को भगाकर प्राप्त किया जाता है) में अन्तर बताया है। नारद (दायभाग ६) एवं बहस्पति ने दोनों को शौर्यधन के अन्तर्गत रखा है। कात्यायन ने नारद एवं बृहस्पति के भार्याधन को दो भागों में बाँटा है। कन्यागत (जो अपनी ही जाति की कन्या के साथ विवाह करते समय प्राप्त होता है) एवं वैवाहिक (वह धन जो पत्नी के साथ आता है) । यह वही है जिसे मनु (६।२०६) ने वैवाहिक एवं याज्ञवल्क्य (२।११८) ने औद्वाहिक की संज्ञा दी है । व्यास का मत है कि शौर्यधन यदि कुल के हथियारों से प्राप्त किया जाय तो संयुक्त धन हो जाता है, किन्तु प्राप्तिकर्ता को दो भाग मिलते हैं और शेष अन्य सदस्यों में सम भाग में बांट दिया जाता है।
सम्पत्ति के कुछ अन्य प्रकार भी हैं जिनका विभाजन नहीं होता और उनका उपभोग संयुक्त या बारी-बारी से होता है। इस विषय में सबसे प्राचीन व्यवस्था गौतम (२८।४४-४६) ने दी है कि जल (कृप), पवित्र उपयोगों एवं यज्ञों के लिए निर्धारित सम्पत्ति एवं भोजन (उत्सवों आदि में बनाया गया) विभाजन के योग्य नहीं है और न सदस्यों की रखैलों का ही बँटवारा हो सकता है। शंख-लिखित ने भवन, जल-पात्रों तथा सदस्यों द्वारा प्रति दिन के उपयोग में लाये जानेवाले अलंकारों एवं परिधानों को अविभाज्य माना है। इसी प्रकार उशना का कथन है कि याज्य (मन्दिरों तथा पुरोहिती से प्राप्त दान), खेत, सवारियाँ, पक्वान्न, जल एवं स्त्रियाँ सहस्रों पीढ़ियों तक सगोत्रों में अविभाज्य हैं । प्रजापति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २७७) के मत से घर, खेत, याज्य (मन्दिर) तथा माता या पिता द्वारा दिया गया स्नेह-दान अविभाज्य है। खेतों एवं घरों के विभाजन के नियन्त्रण को तीन प्रकार से समझाया गया है । मिताक्षरा (याज्ञ० २।११६) के मत से सम्भवतः इस नियन्त्रण में ब्राह्मण द्वारा किसी क्षत्रिय या वैश्य पत्नी से उत्पन्न पुत्र की ओर संकेत है, यदि ब्राह्मण को धार्मिक दान मिलता है तो वह क्षत्रिय पत्नी के पुत्र को नहीं मिलना चाहिए, यदि पिता भी देता है तो उसकी मृत्यु के उपरान्त उसकी ब्राह्मण पत्नी का पुत्र उसे छीन सकता है। दूसरी व्याख्या है कि यह नियन्त्रण उस स्थान या घर से सम्बन्धित है या उस खेत की ओर संकेत करता है जो गायों के लिए चरागाह है। तीसरी व्याख्या यह है कि जब घर या खेत छोटा या कम मूल्य का हो तो उसका बँटवारा नापजोख से न होकर मूल्यनिर्धारण से होना चाहिए। दायभाग ने एक अन्य व्याख्या दी है (६।२।३० पृ० १२८); यदि पिता के रहते कोई पुत्र कुल की भूमि पर घर बनाता है या वाटिका लगाता है तो इसका बँटवारा नहीं होता और वह निर्माता को ही मिलती है।
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