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________________ पृथक्सम्पत्ति का विभाजन एवं विद्या-धम किसी ऐसे व्यक्ति से दान या भेंट पाता है जिसे कुल सम्पत्ति के व्यय द्वारा कृतज्ञ किया गया था, यदि कोई सम्पत्ति श्वर द्वारा दी गयी भेंट के रूप में मिलती है और श्वशुर ने यदि विवाह में दी गयी लड़की के लिए कुल सम्पत्ति से कुछ लिया था (जैसा कि आसुर विवाह में होता है) या यदि नष्ट हुई सम्पत्ति जब पैतृक सम्पत्ति की सहायता से पुनः प्राप्त की गयी या यदि कोई पैतृक सम्पत्ति की सहायता से विद्यार्जन करके विद्याधन प्राप्त करता है तो इस प्रकार के धन अन्य सदस्यों में भी विभाजित होते हैं। इस अर्थ द्वारा बिना कुल सम्पत्ति की हानि किये किसी अन्य से प्राप्त धन भी अन्य सदस्यों में विभाजित होना चाहिए । किन्तु मिताक्षरा की इस व्याख्या को दायभाग ( ६ १८, पृ० ६ ), दीपकलिका, विश्वरूप, व्यवहारप्रकाश ( पृ० ५०१ ) एवं अपरार्क ( पृ०७२३) ने नहीं स्वीकार किया है । यदि आपत्तियों के कारण कुल सम्पत्ति नष्ट हो गयी और उसे किसी सदस्य ने अपने प्रयास से ( बिना कुलसम्पत्ति के उपयोग के ) ग्रहण किया हो तो उसके विषय में कुछ विशिष्ट व्यवस्थाएँ अवलोकनीय हैं। मनु (६।२०६ ), विष्णु० ( १८०४३), बृहस्पति एवं कात्यायन ( ८६६ ) ने एक विशेष नियम यह दिया है कि यदि इस प्रकार न हुई सम्पत्तिको पिता अपने प्रयास से ( बिना कुल सम्पत्ति का व्यय किये ) पुनर्ग्रहण करता है तो वह उसे सम्पूर्ण रूप से स्वाजित जैसी रख लेगा । याज्ञ० (२।११६ ) का नियम केवल वहाँ प्रयुक्त होता है जहाँ कोई अन्य सदस्य ( पिता नहीं) बिना कुल सम्पत्ति की सहायता के नष्ट सम्पत्ति ग्रहण करता है (ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति उस सदस्य की स्वार्जित मानी जायगी ) । किन्तु यदि इस प्रकार किसी सदस्य द्वारा ( पिता नहीं) संपत्ति भूमि के रूप में पुर्नग्रहण की गयी हो तो उसे केवल उसका एक चौथाई प्राप्त होता है ( शंख के मत द्वारा) और शेष सभी सदस्यों को ( पुनर्ग्रहण करनेवाले को भी) बराबर-बराबर मिल जाता है । यह नियम आज कल भी लागू होता रहा है । विद्याधन को आरम्भिक काल में ही मान्यता प्राप्त हो गयी थी, किन्तु तब से अब तक इसमें बहुत परिवर्तन हो गया है। इसके विषय में आपस्तम्ब० एवं बौधायन० मौन हैं, किन्तु गौतम० (२८१२८ - २६) ने कहा है कि सभी सदस्य यदि पढ़े-लिखे न हों (विद्वान् न हों) तो कृषि आदि द्वारा जो कुछ उनसे उपार्जित होता है उसमें सबका बराबर बराबर भाग होता है, किन्तु यदि कोई विद्वान् सदस्य अपनी विद्या से कुछ अर्जित करता है तो यदि वह चाहे तो उसे अन्य अविद्वान् भाइयों में नहीं बाँट सकता । हरदत्त का कथन है कि यह नियम केवल संयुक्त भाइयों के लिए ही प्रयुक्त होता है । वसिष्ठ ( १७।५१ ) ने स्वार्जित धन के दो भाग उपार्जनकर्ता को दिये हैं । किन्तु इनका नियम आरम्भिक अवस्था का द्योतक है जब कि स्वार्जित धन को कोई सम्पूर्णता से अपना नहीं सकता था, उसे केवल दो भाग मिलते थे और शेष संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों को सम भाग के रूप में मिलते थे । मनु ( ६।२०६), याज्ञ० ( २1११६), नारद ( दायभाग १०), कात्यायन (८६८) एवं व्यास ने विद्याधन को सामान्यतः विभाजन के समय विभाजित करने योग्य नहीं ठहराया है । इस विषय में कात्यायन ने बड़ी लम्बी व्याख्या दी है जिस पर आगे चलकर सम्बन्धित बातों के साथ विवेचन होता रहेगा। कुछ स्मृतियों ने उस विद्याधन को विभाजन योग्य ठहराया है जो ऐसे व्यक्ति का हो जो कुल के धन के व्यय से पढ़ा हो ( नारद, दायभाग १०) या जब उसने घर में ही अपने पिता या किसी भाई से शिक्षा ग्रहण की हो ( कात्यायन ८७४) । दायभाग ( ६ । ७१४२ - ४६ ) ने श्रीकर ( याज्ञ० २।११८ ) के मतों का विस्तार से वर्णन किया है और उनका विरोध करते हुए यह लिखा है कि व्यक्ति जन्म- काल से ही अपनी जीविका के लिए कुल पर निर्भर रहता है, अतः यह कहना कि उस पर पैतृक सम्पत्ति नहीं खर्च की गयी, नामक सिद्ध हो जाता है, अतः उसके द्वारा उपार्जित धन विभाजित होना चाहिए और इस विषय में मनु ( ६ । २०८ ) के वचन में कोई सार्थकता नहीं है | अतः विश्वरूप के कथन में सम्पत्ति की हानि से भोजन और अन्य जीविका निर्वाह सम्बन्धी व्यय का तात्पर्य नहीं है, बल्कि उसका तात्पर्य यह है कि वही सम्पत्ति स्वाजित है जो अपने शौर्य से बिना कुल सम्पत्ति का व्यय किये प्राप्त की गयी हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only ८५५ www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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