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________________ ८५४ धर्मशास्त्र का इतिहास भाँति-भाँति के उपायों द्वारा अजित धनों से पथक्सम्पत्ति रख सकता है। पथक्सम्पत्ति के मख्य प्रकार ये हैं--(1) वह सम्पत्ति जो पिता, पिता के पिता और पिता के पिता के पिता से न प्राप्त हो, अर्थात् वह जो भाई चाचा आदि से प्राप्त हो; (२) वह जो पैतृक चल सम्पत्ति से स्नेहवश पिता द्वारा किसी भाग के रूप में दानस्वरूप या प्रसाद के रूप में प्राप्त हो; (३) अपनी पृथक सम्पत्ति से पिता द्वारा पुत्रों को दिया गया दान या प्रसाद या उसके द्वारा मरते समय जो कुछ दिया जाय; (४) अन्य बन्धुओं एवं मित्रों द्वारा दिया गया दान या वह दान या भेट जो विवाह के समय प्राप्त होती है; (५) वह सम्पत्ति जो कुल से निकल चुकी थी और किसी सदस्य द्वारा अपने प्रयासों से (बिना संयुक्त सम्पत्ति की सहायता के) किसी दूसरे से प्राप्त की जाय; तथा (६) वह सम्पत्ति जो स्वाजित हो, विद्या एवं ज्ञान से प्राप्त की गयी हो (विद्याधन) । आगे इन प्रकारों में से कुछ पर विचार प्रकट किये जायेंगे। यह अवलोकनीय है कि उपर्युक्त पृथक्सम्पत्ति के प्रकारों में स्मृतियों ने उन दानों को स्पष्ट रूप से सन्निहित नहीं किया है जो संयुक्त कुल के किसी सदस्य को किसी अन्य व्यक्ति से मिलते हैं, केवल मित्रों से प्राप्त दानों या विवाह के समय प्राप्त भेटों (औद्वाहिक, याज्ञ० २।२१८ एवं मन ६।२०६) या मधुपर्क के समय किसी विद्वान्, पुरोहित आदि को मिले दानों का ही उल्लेख हुआ है । सम्भवतः अन्य लोगों से प्राप्त दानों (जिनको पृथा सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं परिगणित किया गया है) को सम्पूर्ण कुल का धन माना जाता था। पृथक् सम्पत्ति के विषय की धारणा धीरे-धीरे मन्द गति से उदित हुई है। आरम्भ में किसी सदस्य द्वारा उपाजित धन पूरे कुल की सम्पत्ति माना जाता था। मनु (८।४१६) की व्याख्या में शबर, मेधातिथि, दायभाग आदि ने लिखा है कि उपार्जनकर्ता (चाहे वह पुत्र हो या पत्नी) को स्वाजित धन स्वतन्त्र रूप से व्यय करने का अधिकार नहीं है, यद्यपि वह उस धन पर स्वामित्व रखता है। यहाँ तक कि बहुत बाद के लेखक हरदत्त के अनुसार जो कुछ भी किसी सदस्य द्वारा (चाहे वह विद्वान् हो या न हो) अजित होता है वह पिता के जीते-जी पिता का ही होता है (गौतम २८।२६)। दायभाग (२।६६-७२) ने कात्यायन (८५१) को उद्धृत कर कहा है कि "पिता पुत्र द्वारा अजित धन का आधा या दो भाग पाता है और इसे दो ढंगों से समझाया है; यदि पुत्र पैतृक धन की सहायता से धनोपार्जन करता है तो पिता उसका आधा ले लेता है, उपार्जनकर्ता को दो भाग मिलते हैं तथा अन्य पुत्रों को एक-एक भाग मिलता हैं; किन्तु यदि पुन बिना पैतृक धन की सहायता से धनोपार्जन करता है तो उसे तथा पिता को दो-दो भाग मिलते हैं और पुत्रों का कुछ भी नहीं। दूसरी व्याख्या यह है कि यदि पिता विद्वान् हो तो उसे आधा, किन्तु यदि वह विद्वान् न हो तो केवल दो भाग मिलते हैं। व्यवहारप्रकाश (पृ०४४४४४५) ने दायभाग की इन टिप्पणियों की कटु आलोचना की है। कुल के सदस्यों द्वारा उपार्जित धन कुलपति को ही प्राप्त होता है। इस धारणा पर सूत्रों ने प्रथम आक्रमण विद्याधन को पृथक्सम्पत्ति मानकर किया। मनु (६।२०८, विष्णु० १८।४२) का कथन है कि जो कुछ कोई (संयुक्त परिवार का सदस्य, कोई भाई आदि) अपने परिश्रम से (बिना कुल-सम्पत्ति को हानि पहुँचाये) कमाता है, यदि वह न चाहे तो उसे अन्य को न दे क्योंकि वह प्राप्ति उसकी ही क्रियाशीलता द्वारा हुई है। हमने देख लिया है कि मन (६२०६) ने विद्याधन के अतिरिक्त मित्र-दान,विवाह दान (औद्वाहिक) एवं मधुपर्क के समय के दान को किसी व्यक्ति की पृथक सम्पत्ति के रूप में ग्रहण किया है। याज्ञ० (२॥ ११८-६) ने व्यवस्था दी है--''जो कुछ कोई बिना संयुक्त सम्पत्ति की हानि के प्राप्त करता है, मित्रों से दान के रूप में या विवाह में भेट के रूप में जो कुछ पाता है, वह अन्य सहभागियों में विभाजित नहीं होता, इसी प्रकार जो नष्ट हुई पैतृक सम्पत्ति (जो पिता अथवा भाइयों द्वारा पुनः प्राप्त नहीं की गयी थी) फिर से (अपने उद्योग से प्राप्त करता है, उसे भी विभाजन के समय अन्य लोग पाने के योग्य नहीं माने जाते और यही बात विद्याधन के विषय में भी है। इन शब्दों की पदयोजना के विषय में विश्वरूप के पूर्व भी मतैक्य नहीं था। मिताक्षरा ने 'पित द्रव्याविरोधन यत्किञ्चित स्वयमजितम' को चारों प्रकार की सम्पत्ति के साथ सम्बंधित माना है। इसका फल यह है कि यदि कोई सदस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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