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बालिग होने की अवस्था; सम्पत्ति की परिभाषा
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किन्तु कुछ लोगों यथा हरदत्त ( गौ० १० १४८), विवादरत्नाकर ( पृ० ५६६), व्यवहार प्रकाश ( पृ० २६३) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि बालपन का अन्त सोलहवें वर्ष के अन्त में होता है । २६ गौतम ( १०।४८ - ४६), मनु ( ८।२७), वसिष्ठ (१६८), विष्णु ( ३।६५ ) के मत से नाबालिगों, स्त्रियों एवं निर्बलों की सम्पत्ति की रक्षा का भार राजा पर था। आजकल विवाहों यौतकों (स्त्री-धनों), तलाकों एवं गोद के अतिरिक्त अन्य बातों में प्राप्तव्यवहारता अठारहव वर्ष (कुछ मामलों में इक्कीसवें वर्ष ) में मानी जाती है। किसी सहभागी की स्त्री के गर्भवती रहने पर भी विभाजन होता था और इसी से वसिष्ठ ( १७१४ ) ने सहभागियों की गर्भवती पत्नियों के बच्चा जनने तक विभाजन को स्थगित करने की व्यवस्था दी है और मनु (६।२१६) ने पिता और पुत्रों के बीच विभाजन के उपरान्त भी उत्पन्न हुए पुत्र को भाग देने की व्यवस्था दी है।
अब आगे का प्रश्न है, किस प्रकार की सम्पति का विभाजन होना चाहिए। इस प्रश्न पर विचार करने के पूर्व सम्पत्ति के विषय में कुछ चर्चा कर देना आवश्यक है। अधिकाँश स्मृतियों में सम्पत्ति दो प्रकार की कही गयी है; स्थावर ( यथा -- भूमि खण्ड एवं घर) एवं जंगम । देखिये वृहस्पति एवं कात्यायन ( ५१६) । याज्ञ ० ( २।१२१ ) तथा कुछ स्मृतियों में इसके तीन प्रकार कहे गये हैं, भू ( भूमि खण्ड एवं घर ), निबन्ध एवं द्रव्य ( सोना, चाँदी तथा अन्य चल सम्पत्ति ) । २७ कभी-कभी द्रव्य शब्द सभी प्रकार की सम्पत्तियों का द्योतक माना गया है, चाहे वे चल हों या अचल ( द्रव्ये पितामहोपाते जंगमे स्थावरे तथा -- बृहस्पति ) । प्राचीन भारतीय व्यवहार (कानून) के अनुसार सम्पत्ति दो कोटियों में बाँटी गयी है; (१) संयुक्त कुल सम्पत्ति तथा पृथक्सम्पत्ति । संयुक्त कुल सम्पति या तो पैतृक होती है या पैतृक सम्पत्ति की सहायता या बिना उसकी सहायता के संयुक्त रूप में आजत होती है या अलगअलग अर्जित होने पर संयुक्त कर ली जाती है ( मनु ६।२०४ ) । और देखिये मिताक्षरा ( याज्ञ० १।१२० ) । पैतृक सम्पत्ति को अप्रतिबन्ध दाय भी कहते हैं और यह वह है जिसे कोई पुरुष अपने पिता, पितामह, प्रपितामह दाय रूप में प्राप्त करता है और जिसे मिताक्षरा सम्प्रदाय के अनुसार पाने वाले के पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र जन्म से प्राप्त करते हैं । पृथक्सम्पत्ति में स्वार्जित सम्पत्ति भी सन्निहित मानी जाती है, जिस पर हम आगे विचार करेंगे। यदि कोई व्यक्ति विभाजन द्वारा पैतृक सम्पत्ति से कोई अंश पाता है, तो ऐसा माना गया है कि वह उसकी पृथक्सम्पत्ति कहलायेगी, जबकि उसके पुत्र, पौत या प्रपौत्र न हों, किन्तु इनमें से यदि कोई हो तो वह उसके तथा उसके अन्य उत्तराधिकारियों के लिए पैतृक सम्पत्ति कहलायेगी । दायभाग सम्प्रदाय के अन्तर्गत पुत्र जन्म से ही पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रखता, अतः जहाँ तक पिता को विघटन सम्बंधी अधिकार प्राप्त है, पैतृक सम्पत्ति एवं पृथक्सम्पत्ति में कोई अन्तर नहीं है । इस सम्बन्ध में हमने ऊपर देख लिया है और थोड़ा-बहुत आगे लिखा जायगा ।
मिताक्षरा के अनुसार संयुक्त सम्पत्ति का सदस्य होते हुए और उसमें अभिरुचि रखते हुए भी कोई व्यक्ति
२६. यावदसौ व्यवहारप्राप्तः षोडशवर्षो भवति । हरदत्त ( गौ० १०1४८ ); पुत्राधिकारे बौधायनः, तेषामप्राप्तव्यवहाराणाम्० । आङ, अभिविधौ, तेन सप्तदशवर्षात्प्राक् । विवादरत्नाकर ( पृ० ५६६ ) ; कात्यायनोपि -- ....... नाप्राप्त व्यवहारस्तु" इति नाप्राप्तव्यवहारः हेयोपादेयपरिज्ञानविशेषसहितैः षोडशवर्षं रित्यर्थः । षोडशवार्षिकस्य व्यवहारज्ञत्वमाह । गर्भस्थेः आदि ( नारद ४।३५ ) । व्यवहारप्रकाश ( पृ०२६३) ।
२७. 'निबन्ध' शब्द का अर्थ है रुपये-पैसे या अन्न या अन्य वस्तुओं के रूप में वह आवधिक शुल्क या चुकती जो राजा द्वारा या संघ द्वारा या ग्राम द्वारा या किसी जाति द्वारा किसी व्यक्ति, कुल, मठ या मन्दिर को स्थायी रूप में मिलता है ( बंधान) । यजमान-वृत्ति भी निबन्ध ही है ।
या दान,
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