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धर्मशास्त्र का इतिहास
ऐसे धार्मिक कार्य जो पंचमहायज्ञों से सम्बन्धित हैं । २३ मनु ( ३।६७ ) ने लिखा है कि प्रत्येक घर में विवाह के समय प्रज्वलितगृह्य अग्नि में गृह्य क्रिया-संस्कार किये जाने चाहिए, यथा- प्रातः एवं सायं के होम, पंचमहायज्ञ, प्रति दिन भोजन पकाना आदि । संग्रह नं धर्म को अग्निहोत्र करने के अर्थ में लिया है, किन्तु स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २५६ ) एवं व्यवहारप्रकाश ( पृ० ४३७-४३८) ने इसे स्वीकार नहीं किया है और उनका कहना है कि संयुक्त रहने पर कोई भी सहभागी सभी श्रौत एवं स्मार्त, यथा अग्निहोत्र के कर्म संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से कर सकता है, धर्म का अर्थ है केवल देवपितृद्विजार्चन । व्यास ने भी नारद एवं बृहस्पति की बात दुहरायी है ।
सामान्यतः बालिग होने पर ही विभाजन होता था, किन्तु कौटिल्य (३५), बौधायन ( २/२/४२ ) एवं कात्यायन (८४४-४५) से प्रकट होता है कि अप्राप्तव्यवहारता ( बाल दशा या नाबालिग होना) विभाजन के लिए बन्धन नहीं था । कौटिल्य ( ३।५ ) का कथन है--- जब सहभागी प्राप्तव्यवहार (बालिग ) हो जाते हैं तो विभाजन होता है; किन्तु सहभागियों (अलग होनेवाले अंशहर अथवा रिक्थभागी) को चाहिए कि अप्राप्तव्यवहार वालों (नाबालिंगों ) के भाग को उनकी माता के सम्बन्धियों (बन्धुओं के ) संरक्षण में या ग्रामवृद्धों के संरक्षण में कुल के सभी ऋणों को चुका लेने के उपरान्त तब तक रख दें जब तक वे प्राप्तव्यवहार न हो जायें । कात्यायन ने व्यवस्था दी है कि सांसारिक बातों की समझदारी आ जाने पर सहभागियों में विभाजन होना चाहिए और यह व्यवहारिता ( समझदारी) पुरुषों में १६ वें वर्ष में आ जाती है । जो लोग अभी अप्राप्तव्यवहार हैं उनकी संयुक्त कुल की सम्पत्तिको व्यय-विवर्जित (ऋण आदि से मुक्त ) करके प्राप्त व्यवहार वालों द्वारा उनके बन्धुओं या मित्रों के यहाँ रख दिया जाना चाहिए । यही बात उनके साथ भी होनी चाहिए जो बाहर चले गये हों । ३४ इससे स्पष्ट है कि अप्राप्तव्यवहारता की अवस्था में भी विभाजन की व्यवस्था थी और एक सहभागी की माँग पर भी विभाजन होता था, जैसा कि दायभाग ( ३।१६-१७ ), व्यवहारप्रकाश आदि में वर्णित है ।
प्रातव्यवहारता सोलहवें वर्ष के आरम्भ में होती थी या उसके अन्त में, इस विषय में मतैक्य नहीं है। नारद (४/१५ ) के मत से सोलहवें वर्ष तक व्यक्ति बाल रहता है। मिताक्षरा द्वारा उद्धृत अंगिरा एवं गौतम (२२६, हरदत्त द्वारा उद्धृत) के वचनों से पता चलता है कि व्यक्ति सोलहवें वर्ष के आरंभ तक बाल रहता है । २५ कात्यायन के अनुसार बाल्यावस्था सोलहवें वर्ष के आरम्भ में समाप्त हो जाती है । बहुत-से टीकाकारों ने भी यही बात कही है,
२३. अधीतवेदेषु अधिगतवेदार्थेषु चाग्निहोत्राद्यनुष्ठानसमर्थेषु च विभाग एवं श्रयान् । अपरार्क पृ० ७१६; धर्मः पितृदेवद्विजार्चनजन्यः । उक्तं च तथैव संग्रहकारेण । क्रियते स्वं विभागेन पुत्राणां पैतृकं धनम् । स्वत्वे सति प्रवर्तन्ते तस्माद्धर्म्याः पृथक् क्रियाः ॥ प्रवर्तन्ते स्वसाध्याग्निहोत्रादय इति शेषः । अत्रोच्यते "आदि । स्मृतिच० २, पृ० २५६; तस्मात्पंचमहायज्ञादिधर्म एव धर्मशब्देनात्र ग्राह्यः । व्य० प्र० पृ० ४३८ स्वत्वाविशेषादेवाविभक्तद्रव्येण यत्कृतं तत्र दृष्टादृष्टे कर्मणि सर्वेषां फलभागित्वम् । दायतत्त्व पृ० १६४ ।
२४. प्राप्तव्यवहाराणां विभागः । अप्राप्तव्यवहाराणां देयंविशुद्धं मातृबन्धुषु ग्रामवृद्धेषु वा स्थापयेयुरा व्यवहारप्रापणात् प्रोषितस्य वा । अर्थशास्त्र ( ३२५ ); और देखिये बौधा० ( २/२/४२ ) ; संप्राप्तव्यवहाराणां विभागश्च विधीयते । पुंसां च षोडशे वर्षे जायते व्यवहारिता । अप्राप्तव्यवहाराणां च धनं व्ययविजितम् । न्यसेयुधुमित्रेषु प्रोषितानां तथैव च ॥ कात्यायन ( ८४४-८४५) ।
२५. बाल षोडशाद्वर्षात् पोगण्ड इति शस्यते । नारद ( ऋणादान ३५ ) | अशीतिर्यस्य वर्वाणि बालो वाप्यूनषोडशः । प्रायश्चितार्थमर्हन्ति स्त्रियो रोगिण एव च । इत्यङ्गिरःस्मरणात् । मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२४३) ।
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