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________________ विभाजन-काल ८५१ का कहना है कि पिता की सम्पत्ति (जो उसे उसके भाग के अनुसार मिली है) का बंटवारा स्मृतियों द्वारा व्यवस्थित विशिष्ट नियम (वाचनिकी व्यवस्था) है, किन्तु अन्य विषयों में जन्मस्वत्व का प्राथमिक नियम ही लागू होता है। मनु (६।२०६) के कहे गए वचन से निर्देशित होकर मिताक्षरा ने निष्कर्ष निकाला है कि पिता की इच्छा के विरुद्ध भी पुत्र पितामह की सम्पति के विभाजन की मांग रख सकता है। यही मिताक्षरा सम्प्रदाय के मत से हिन्दू कानून है, जो आजकल मान्य है। जब याज्ञवल्क्य एवं अन्य स्मृतियों ने पैतृक सम्पत्ति पर पुत्र का जन्म से ही अधिकार मान लिया तो यह तर्कसिद्ध फल निकला कि कोई भी व्यक्ति, जो जन्म से स्वत्वाधिकार रखता है, विभाजन की मांग कर सकता है और अपने भाग को किसो समय अलग करा सकता है। हमने देख लिया है कि गौतम के पूर्व भी पुत्र लोग अपने पिताओं की इच्छा के विरुद्ध उनसे अलग हो जाते थे, किन्तु इस कार्य की ऋषियों ने निन्दा की है, ऐसे आचरण को घृणित एवं गहित माना गया है । कुछ स्मृतियों ने पिता के रहते पुत्र के विभाजन के अधिकार को कुछ बड़े नियन्त्रणों के भीतर मान लिया है। पिता के रहते एवं उनकी इच्छा के विरुद्ध पुत्र द्वारा सम्पत्ति-विभाजन कर अलग हो जाना स्पष्ट रूप से व्यक्त है और यह प्रथा गौतम के काल से लेकर मिताक्षरा (लगभग पन्द्रह शताब्दियों) तक चली आयी। वीरमित्रोदय ने भी पुन के इस अधिकार को मान्यता दी है। किन्तु मिताक्षरा के कुछ अनुयायी लेखकों ने इसे नहीं स्वीकार किया है, यथा--मदनपारिजात (पृ० ६६२) के लेखक ने लिखा है कि केवल पुत्र की इच्छा से विभाजन नहीं हो सकता । दायभाग में ऐसे प्रश्न उठते ही नहीं, क्योंकि उसके मत से पुत्र को पैतृक सम्पत्ति पर जन्म से कोई अधिकार ही नहीं है। पिता के जीवन-काल में विभाजन-सम्बन्धी पुत्र की मांग को प्राचीन काल के कुछ धार्मिक मनोभावों से प्रेरणा मिली । गीतम (२८।४) ने लिखा है कि यदि संयुक्त न रहकर भाई पृथक हो जायँ तो धार्मिक श्रेष्ठता की वृद्धि होती (विभागे तु धर्मवृद्धि :) है । मनु (६।१११) ने कहा है--"वे (भाई) संयुक्त रह सकते हैं या यदि धर्म-वृद्धि चाहें तो पृथक् भी रह सकते हैं, पृथक् रहने से धर्म-वृद्धि होती है। अतः विभाजन महत्त्वकारी है।" २० इससे प्रकट होता है कि पिता की मृत्यु के उपरान्त संयुक्त रहना या अलग-अलग हो जाना अभिरुचि या विकल्प पर निर्भर था। शंख लिखित का कहना है कि भाई संयुक्त रह सकते हैं क्योंकि एक साथ रहने पर वे भौतिक रूप से उन्नति कर सकते हैं।२१बहस्पति का कथन है कि संयुक्त परिवार में साथ-साथ रहने और एक ही चूल्हे पर पकाकर खानेवालों द्वारा की गयी देव-पितृ-ब्राह्मण पूजा सबकी ओर से एक ही होती है, किन्तु जब वे पृथक् हो जाते हैं तो प्रत्येक घर में पृथकपृथक् वही पूजा होती है। यही बात नारद (दायभाग ३७) ने भी कही है।" विभाजन होने पर धर्म की वृद्धि होती है, क्योंकि अलग हो जाने पर अलग-अलग घरों में धार्मिक कृत्य होने लगते हैं । यहाँ पर धर्म का तात्पर्य है मुख्यतः २०. मनु (१११) के कथन को व्यवहारनिर्णय (पृ० ४०८) ने प्रजापति के कथन के रूप में उद्धत किया है। मदनरत्न ने मनु एवं प्रजापति को पृथक-पृथक् माना है, "पृथग्वैवपित्र्यकर्मकरणाद्धर्मवृद्धिमयेक्षमाणा विभजयेरित्याहतुर्मनुप्रजापता एवं सह वसेयुर्वा .... आदि ।" । २१. कामं वतेयुरेकतः संहता बुद्धिमाचक्षीरन् । शंखलिखितौ (विवादरत्नाकर पृ० ४५८)। २२. एकपाकेन वसतां पितृदेवद्विजार्चनम् । एक भवेद्विभक्तानां तदेव स्याद् गृहे गृहे ॥ बृ० (अपराक) पृ० ७१६; व्य० नि० पृ० ४६८; कुल्लूक, मनु ३१११; हरवत (गौतम १८१४; विवादरत्नाकर पृ० ४५६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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