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धर्मशास्त्र का इतिहास
चाहिए । गौतम ( २८1१-२ ) का अनुसरण करते हुए मिताक्षरा ने विभाजन के तीन प्रमुख काल दिये हैं- ( १ ) जीवन काल में पिता की इच्छा से; (२) जब पिता की सारी भौतिक इच्छाएँ मृत हो गयी हों, वह संभोग से दूर रहता हो और माता सन्तानोत्पत्ति के योग्य न रह गयी हो, उस समय पिता की इच्छा के विरुद्ध भी पुत्र यदि चाहें तो बँटवारा कर सकते हैं (गौतम २८|२; नारद, दायभाग, ३, बृहस्पति ) ; एवं (३) पिता की मृत्यु के उपरान्त । मिताक्षरा
शंख के आधार पर लिखा है कि पुत्र माता द्वारा सन्तान उत्पन्न किये जाने पर भी पिता की इच्छा के विरुद्ध बँटवारा कर सकते हैं, यदि पिता अनैतिक हो, अधार्मिक हो, असाध्य रोग से पीड़ित हो या वृद्ध हो गया हो । यही बात नारद ( दायभाग १६) में भी है। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि मिताक्षरा ने केवल उपर्युक्त तीन विभाजन कालों को ही मान्यता दी है । अन्य काल भी हैं। देखिये व्यवहारप्रकाश ( पृ० ४३४) । दायभाग ने शंख - लिखित के उपर्युक्त निर्देशित कथन का अर्थ कुछ और ही लिया है और कहा है कि जब तक पिता जीवित है, उसकी इच्छा के विरुद्ध विभाजन हो ही नहीं सकता, भले ही वह असाध्य रोग से पीड़ित हो, या उसकी मति खराब हो गयी हो; यदि ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाय तो ज्येष्ठ पुत्र या उसकी सहमति से दूसरा बड़ा पुत्र यदि योग्य हो तो कुटुम्ब की व्यवस्था सँभाल सकता है । दायभाग ने इसी प्रकार का एक कथन हारीत का भी उद्धृत किया है जिसे मदनरत्न, व्यवहारभयख एवं अन्य निबंधों ने भी उल्लिखित किया है । मिताक्षरा की टिप्पणियों के फलस्वरूप मदनपारिजात ( पृ०६४५ ) जैसे ग्रंथों ने विभाजन के चार काल दिये हैं-- ( १ ) पिता के रहते उसकी इच्छा के अनुसार ( याज्ञ० २।११४ ) ; (२) पिता की इच्छा के विरुद्ध भी जब कि माता संतान उत्पन्न करने योग्य न रह गयी हो और पिता निष्काम हो गया हो और वह सम्पत्ति की परवाह न करता हो ( नारद, दायभाग ३); (३) जब पिता वृद्ध हो गया हो, अधर्ममार्ग का अनुसरण करता हो या असाध्य रोग से पीड़ित हो तो उसकी इच्छा के विरुद्ध भी विभाजन हो सकता है; तथा ( ४ ) पिता की मृत्यु के उपरान्त ( यही बात व्यवहारनिर्णय, पृ० ४०८) में पायी जाती है ।
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मिताक्षरा इस विषय में स्पष्ट है कि पिता के जीते-जी और उसकी इच्छा के विरुद्ध भी पैतृक सम्पत्ति के विभाजन में पुत्र का सम्पूर्ण अधिकार है। मिताक्षरा के विवेचन को हम संक्षेप में ही रखेंगे । याज्ञ० (२1१२० ) में आया है कि पौत्रों के विषय में विभाजन पिता के मत से (या उसके द्वारा ) होता है । याज्ञवल्क्य के 'अनेक पितृकाणां तु पितृतो भागकल्पना' कथन को मिताक्षरा ने इस प्रकार समझाया है कि यद्यपि पुत्र एवं पौत्र पितामह की सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार जन्म से ही पाते हैं, तथापि जब तक एक-एक करके सभी पुत्र असमान संख्या में पुत्रों को छोड़कर मर जाते हैं (पहला दो छोड़ता है, तीसरा तीन... आदि ) या जब कुछ पुत्र जीवित हैं और कुछ मर गये हैं तो उन्हें सम्पत्ति-भाग इस प्रकार मिलता है -- किसी मृत पुत्र के पुत्रों (पिता के पौत्रों) को इतना ही मिलता है जितना उसे ( पिता के पुत्र को जीवितावस्था में ) मिलता, अर्थात् पौत्रों को अपने पिताओं (पिता के पुत्रों) का भाग
प्राप्त होता है । यहाँ एक सन्देह हो जाता है; यदि बहुत-से पुत्नों वाला पिता अपने भाइयों से अपने पितामह की सम्पत्ति के विभाजन के उपरान्त पृथक् हो जाय या यदि पिता का कोई भाई न हो और वह अपने पिता के साथ संयुक्त हो तो पौन लोग पितामह की सम्पत्ति नहीं माँग सकते ( क्योंकि याज्ञ० २।१२० की की गयी व्याख्या के अनुसार जब पिता मर जाता है तो पौत्रों को वही भाग मिलता है जो पिता को अपने भाग के रूप में मिलता है ) । दूसरा संदेह यह है; यदि इन स्थितियों में पाँत के बीच बँटवारा हो भी तो वह पिता की इच्छा के अनुसार ही सम्भव है । इन संदेहों को मिताक्षरा ने यह कहकर दूर कर दिया है कि पितामह की सम्पत्ति में पिता एवं पुत्र का स्वामित्व भली-भांति ज्ञात है अतः उपर्युक्त सन्देहों की बात ही नहीं उठती और विभाजन होता ही है। मिताक्षरा का आगे स्पष्ट कथन है कि यदि माता अभी सन्तानोत्पत्ति करती जा रही हो और पिता अभी सम्पत्ति और भौतिक कार्यों में संलग्न हो तब भी पिता की इच्छा के विरुद्ध पितामह की सम्पत्ति का बँटवारा पुत्र की अभिलाषा से होता ही है । मिताक्षरा
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