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________________ विभाजन-काल ८४६ भी कुछ विभाजन योग्य रियासतों एवं कुछ साधारण कुलों में यह विधि प्रचलित रही है, क्योंकि उनके पीछे अतीत की परम्परा रही है या राजकीय दानों (जागीर एवं सरंजाम आदि) के बंटवारे की ऐसी विधि रही है। कौटिल्य एवं कात्यायन ने घोषित किया है कि दाय-विभाजन के समय राजा द्वारा देशों, जातियों, ग्रामों एवं श्रेणियों की रुढ़ियों की रक्षा होनी चाहिए (अर्थशास्त्र ३७ एवं कात्यायन, विवादरत्नाकर पृ० ५०५)। डा० जॉली का कथन है कि आपस्तम्बधर्मसूत्र ने पिता द्वारा व्यवस्थित विभाजन के अतिरिक्त कोई अन्य विभाजन-प्रकार नहीं बतायाहै। किन्तु यह भ्रामक कथन है। आपस्तम्ब एक बड़े विमलात्मा एवं आर्दशवादी थे। उन्होंने अपने समय के पूर्व की बहुत सी प्रसिद्ध बातों की अवज्ञा की है,यथा---उन्होंने गौण पुत्रों की चर्चा नहीं की है,ब्राह्मणों के लिए तब तक अस्त्र-शस्त्र छूना तक त्याज्य माना है जब तक उन पर मुत्यु की छाया न पड़े अर्थात् जब तक उन्हें मार डालने के लिए कोई आक्रमण न हो, किन्तु मनु (८।३४५-३४६), गौतम० (७६ एवं २५) आदि ने इस विषय में पर्याप्त छूट दी है। अतः आपस्तम्ब का विभाजन के अन्य प्रकार के विषय में मौन रह जाना यह नहीं व्यक्त करता कि अन्य प्रकार थे ही नहीं। गौतम ने जो साधारणतः आपस्तम्ब के पूर्व के माने जाते हैं, कहा है कि वे ब्राह्मण, जो पिता की इच्छा के विरुद्ध उससे पृथक् हो गये हैं, श्राद्ध के समय भोजन के लिए आमन्त्रित किये जाने योग्य नहीं है ।१६ इससे स्पष्ट है कि गौतम के पूर्व भी पिता की इच्छा के विरुद्ध पुत्रों में विभाजन हो जाता था । डा० जॉली ने मिताक्षरा (याज्ञ० २।११४) के द्वारा उद्धृत एक अज्ञात कथन का हवाला दिया है जो भूमि-विक्रय का निषेध करता है। किन्तु यह अनावश्यक है। उस कथन को शाब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिए था, क्योंकि हम जानते हैं कि लगभग दो सहस्र वर्षों से भूमि-विक्रय का प्रचलन चलता आया है। वहाँ केवल इतना ही आया है कि विक्रय को दान रूप से (अर्थात् सोने एवं जल के साथ) करना चाहिए । जहाँ कहीं कुछ स्मृतियों में ऐसा आया है कि भूमि एवं भवन विभाजित करने योग्य नहीं हैं, वहाँ केवल यही तात्पर्य है कि छोटे-छोटे भूमि-खण्डों एवं घरों को बहुत-से सहभागियों में बाँटना आर्थिक दृष्टि से अच्छा नहीं है। ऐसा सोचना कि उन स्मृतियों के मत से भवनों का विभाजन सहभागियों में नहीं होता था, भ्रामक है। इतना ही समझना पर्याप्त है कि इस प्रकार के बिभाजन समाज में अच्छे रूप में ग्रहण नहीं किये जाते थे। इस प्रकार की मनोभावना गौतम एवं आपस्तम्ब के उपरान्त भी पायी जाती रही है, यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी में हिन्दू पुत्र का विभाजन के लिए अपने पिता से मुकदमा लड़ना घृणास्पद एवं गर्हित माना जाता है। गौतम के कथन से व्यक्त होता है कि वैदिक निर्देशों के रहते हुए भी पिता के रहते ही और उसकी इच्छा के विरुद्ध भी कभी-कभी विभाजन हो जाया करता था, यद्यपि ऐसी बातें बहुत कम होती थीं। अब स्मतियों एवं मध्यकालीन लेखकों के विभाजन-काल सम्बन्धी नियमों का विचार करना चाहिए। एक समय वह था जब कि पिता जीवन-काल में ही पुत्रों में सम्पत्ति-विभाजन करता था (तैत्ति० सं० ३।१।६।४; आप० २।६।१४।१; गौतम २८१२; बौधायन० २।२।८; याज्ञ० २।११४; नारद, दायभाग ४)। दूसरा समय था पिता की मृत्यु के उपरान्त (गौतम २८।१; मनु ६।१०४; याज्ञ० २।११७; नारद, दायभाग २)। दायभाग ने केवल इन्हीं दो समयों को मान्य ठहराया है,अर्थात् पिता के स्वामित्व की समाप्ति पर (मृत्यु पर या संन्यासी हो जाने पर या सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाने पर) तथा पिता के जीवन काल में ही उसकी इच्छा के अनुसार (दायभाग ११४४)। व्यवहारप्रकाश (पृ.०४२६ एबं ४३४, ४३५) ने इस विषय में दायभाग की कटु आलोचना की है। जीमूतवाहन जैसे कुछ लेखक बहुत आगे बढ़ गये हैं और कहते हैं कि पिता की मृत्यु के उपरान्त माता के जीवन-काल तक भी पुनों के बीच सम्पत्ति-विभाजन नहीं होना १६. न भोजयेत्...पित्रा वाकामेन विभक्तान् । गौतम० (१५५१५ एवं १६) । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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