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________________ ८४८ धर्मशास्त्र का इतिहास जैसा कि शुनःशेप की गाथा से प्रमाणित है।१६ वसिष्ठ (१५२२) का कथन है कि माता-पिता को अपने पुत्र का दान, विक्रय एवं त्याग करने का अधिकार है ।१७ हमने ऊपर देख लिया है कि मनु के अनुसार पुत्र का अजित धन पिता का होता है। आपस्तम्ब० (२।६।१३।१०।११) ने बलपूर्वक कहा है कि अपनी संतान को छोड़ देने एवं बेच देने का अधिकार मान्य नहीं है और विक्रय' शब्द, जो वध के सिलसिले में व्यक्त होता है, वह आलंकारिक रूप से ही व्यक्त है। 'विक्रय' शब्द की व्याख्या (विवाह के सम्बन्ध में) पहले की जा चकी है (देखिये भाग २, अध्याय ६)। दूसरी ओर हम स्वयं ऋग्वेद (१७०१५) में ऐसा पाते हैं कि पुत्रों ने पिता की वृद्धावस्था में ही (मरने के पूर्व) उसको सम्पत्ति विभाजित कर ली, यथा-- "हे अग्नि, लोग तुम्हें बहुत स्थानों में कई प्रकार से पूजित करते हैं और (तुमसे) सम्पत्ति उसी प्रकार ग्रहण करते हैं जिस प्रकार बूढ़े बाप से ।" एतरेय ब्राह्मण (२२६) में मनु के सबसे छोटे पुत्र नाभानेदिष्ठ की कथा से प्रकट होता है कि उसके सभी बड़े भाइयों ने पिता के रहते सारी सम्पत्ति अपने में बाँट ली और उसे वंचित कर दिया,किन्तु उसने कोई विरोध नहीं किया। किन्तु तैत्तिरीय संहिता (३।१।६४-५) में यह बात दूसरे ढग से कही गयी है; स्वयं मनु ने अपनी सम्पत्ति अन्य पुत्रों में बाँट दी और नाभाने दिष्ठ को कोई भाग नहीं दिया और वेचारा नाभानेदिष्ठ उस समय गुरुकुल में वैदिक विद्यार्थी था। गोपथ ब्राह्मण (४११७) में आया है--"अतः अपने बचपन में पुत्र अपने पिता पर निर्भर रहते हैं, किन्तु वार्धक्य में पिता पुत्रों पर निर्भर रहता है।" कौषीतकी ब्राह्मण उपनिषद् (२।१५) में आया है कि मृत्यु के मुख में जाते हुए पिता ने अपनी भौतिक एवं मानसिक शक्तियां अपने पुत्र को देते हुए कहा कि यदि इस क्रिया-संस्कार के उपरान्त वह जीवित हो उठता है तो उसे या तो पुत्र के अधिकार में रहना होगा या वह यात्री (सन्यासी) के समान घर से बाहर चला जायगा । शतपथ ब्राह्मण (१२।२।३।४) में आया है--"बचपन में पुत्र पिता पर आधारित रहते हैं आगे चलकर पिता पुत्रों पर आधारित रहता है।" उपर्युक्त कुछ कथनों से व्यक्त होता है कि बहुत ही विरल अवसरों में पुत्र पिता के रहते और उसकी इच्छा के विरुद्ध सम्पत्ति विभाजन करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि डा० जॉली का यह कथन कि "भारतीय व्यवहार के आरम्भिक युगों में सम्पत्ति-विभाजन अज्ञात था" (टैगोर व्याख्यान, पृ०६०) ठीक नहीं है और यह वैदिक मतों से पुष्ट नहीं होता। तैत्तिरीय संहिता(३।१।६।४) में आया है कि मनु ने अपनी सम्पत्ति अपने पुत्रों में विभाजित कर दी, इसमें यह भी आया है कि ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक सम्पत्ति मिली। आपस्तम्ब० (२।६:४।६ एवं १०-१२) ने तैत्तिरीय संहिता के दोनों कथनों (३।१।६।४ एवं २१५।२।७) को उद्धृत किया है, किन्तु निष्कर्ष यह निकाला है कि पुत्रों में बराबर भागों का विभाजन उचित विधि है और ज्येष्ठ पत्र को सम्पत्ति का अधिक भाग देना शास्त्रविरुद्ध है ।१८ इससे स्पष्ट है कि बराबर के बँटवारे का नियम-सा था और अधिक अंश देना अपवाद था तथा वैदिक युग में भी ऐसा विरल ही होता था। ऐतरेय ब्राह्मण (१६६३) ने इन्द्र के ज्येष्ठ्य एवं श्रेष्ठ्य नामक अधिकार का उल्लेख किया है। विभाजन के समय ज्येष्ठ पुत्र के साथ विशिष्ट व्यवहार करना मनु (६।११२) एवं याज्ञ० (२।११४) के युगों में प्रचलित था, और आधुनिक काल में १६. स्त्रीणां दानविक्रयातिसर्गाविद्यन्ते न पुंसः । पुसोपीत्येके शौनःशेपे दर्शनात् । निरुक्त (३।४) । १७. तस्य (पुरुषस्य) प्रदानविक्रयत्यागेषु मातापितरौ प्रभवतः । वसिष्ठ० (१५२); दानक्रयधर्मश्चापत्यस्य न विद्यते। आप० ध० सू० (२।६।१३।१०)। १८. ज्येष्ठो दायाद इत्येके । ...."तच्छास्त्रविप्रतिषिद्धम् । मनुः पुत्रेभ्यो दायं व्य मजदित्यविशेषेण श्रयते । अथापि तस्माज्ज्येष्ठं पुत्रं धनेन निरवसाययन्त्येकवच्छ यते । आप० (२।६।१४।६, १०-१२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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