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विभाग का ऐतिहासिक विवेचन
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या अलगाव । मिताक्षरा के अन्तर्गत इन दोनों अर्थों में विभाजन सम्भव है। समांशिता (सहभागित्व या सहभागिता) के सदस्य किसी भी क्षण अपने अंशों के अधिकारों का निपटारा कर सकते हैं; किन्तु नाप-जोख आदि द्वारा सम्पत्तिविभाजन आगे के समय के लिए स्थगित किया जा सकता है और तब तक वे पहले की भांति हो एक-साथ सम्पत्ति का उपभोग कर सकते हैं। देखिये व्यवहारमयूख (पृ०६४) एवं सरस्वतीविलास (पृ. ३४७) । दायभाग के अन्तर्गत पूर्व स्वामी की मृत्यु के उपरान्त ही उत्तराधिकार आरम्भ होता है और निश्चित भाग निर्धारित होते हैं, अतः विभाजन उपर्युक्त प्रथम अर्थ में ही होता है, अर्थात् प्राप्त दाय के निश्चित भाग सहभागियों को दे दिये जाते हैं। किसी सदस्य के भाग को अलग करने की एक विधि और है जो मनु (६।२०७) एवं याज्ञ० (२।११६) में उल्लिखित है, यथा--यदि परिवार का कोई सदस्य अपना निर्वाह स्वयं करने में समर्थ है और परिवार की सम्पत्ति का कोई भाग नहीं चाहता, तो उसे कोई साधारण वस्तु चिह्न रूप में देकर अलग किया जा सकता है । मिताक्षरा ने जोड़ दिया है कि यह चिह्न इसलिए दिया जाता है कि उसके पुन आगे चलकर अपना अधिकार न जताने लगें।
दायभाग या दायविभाग के अन्तर्गत मिताक्षरा एवं संग्रह के अनुसार चार प्रमुख विषय हैं; विभाजनकाल, विभाजन की जानेवालो सम्पत्ति, विभाजन विधि एवं विभाजन के अधिकारी।
विभाजन-काल--विभाजन-सम्बन्धी पुत्र के अधिकार का विकास युगों की क्रमिक गति में पाया जाता रहा है। हम यहां पर संक्षेप में इस विषय पर कुछ कहेंगे । अति प्राचीन काल में जब कि कुलपति-सत्तात्मक परिवार प्रचलित था पिता का पुत्र पर एकसत्तात्मक (सम्पूर्ण) अधिकार था, पिता की आज्ञा का पालन पुत्र का कर्तव्य था, परिवार की सम्पत्ति का विघटन नहीं होता था, सभी की अजित सम्पत्तियों पर पिता का शासन था और स्त्रियों को सम्पत्ति रखने का कोई अधिकार नहीं था। इस विषय पर वैदिक साहित्य में भी धुधला-सा प्रकाश मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण (१३।१) में उल्लिखित शुनःशेप की गाथा में आया है कि अजीगर्त ने वरुण के लिए अपने पुत्र को बेच दिया; विश्वामित्र ने अपने एक सौ एक पुत्रों के रहते शुनःशेप को गोद लिया; उन्होंने अपने पचास पुत्रों को आज्ञा उल्लंघन के अपराध में शाप दिया और उन्हें दाय (रिक्थ) से वंचित कर दिया। इन बातों से स्पष्ट है कि ऐतरेय ब्राह्मण के युग में ऐसा विश्वास था कि प्राचीन काल में पुद्र पर पिता को सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त था। किन्तु यहाँ सावधानी से उपर्युक्त गाथा का मर्म समझना चाहिए। गाथा केवल किंवन्दती के रूप में है और स्वयं ऐतरेय ब्राह्मण ने अजीगर्त के आचरण की निन्दा की है।१५ आजकल ऐसे माता-पिता विरल रूप में पाये जाते हैं जो बीमा का धन कमाने के लिए पूत्रों की बीमापॉलिसी लेकर उन्हें विष देकर मार डालें । किन्तु कोई भी ऐसा नहीं कहता कि यह अधिकतर होता है और आधुनिक कानून इसकी छूट देता है । ऋग्वेद (१।११७।१७) में आया है कि ऋजाश्व की आँखें उसके पिता ने निकलवा ली, क्योंकि उसने (ऋज्राश्व ने) भेड़िये को एक सौ भेड़ें दे डाली थीं। ऐसा केवल एक ही उदाहरण है और लगता है ऋग्वेद के इस मन्त्र में आलंकारिकता की झलक है और देवी प्रक्रिया की ओर संकेत मात्र है । काठक संहिता (१११४) में आया है कि पिता पुत्र पर राज्य करता है (पिता पुत्रस्येथे)। किन्तु यह जानना चाहिए कि पिता का पुत्र के ऊपर अधिकार ऐतिहासिक कालों में भी परिलक्षित होता रहा है। निरुक्त (३।४) ने अपने पूर्व के लोगों की उक्ति दी है कि पुत्रियां पिता के धन का उत्तराधिकार नहीं पातीं, क्योंकि उनका (पुत्रियों का)दान, विक्रय एवं त्याग हो सकता है, किन्तु पुरुषों का ऐसा नहीं होता। किन्तु अन्य लोगों के मत से पुरुषों के साथ भी वैसा व्यवहार किया जा सकता है,
कुमकुमदेसातोनरन् । नासः शौद्रान्यायाद सन्धेयं त्वया
१५. स होगा तो प प कृतमिति ऐ० प्रा० (३३॥५) ।
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