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'दायभाग' का मूल क्या है ? विभाग की व्याख्या
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युक्तिसंगत नहीं है । यहाँ पर हम इनके सिद्धान्त की विस्तृत आलोचना नहीं उपस्थित करेंगे, केवल कुछ तर्क उपस्थित किये जायंगे । बंगाल की अपेक्षा पश्चिमी भारत बहिर्देशीय व्यापार में अधिक बढ़ा-चढ़ा था, यूनानी लेखकों ने बरुगज (भडौंच) एवं कल्लीएन (कल्याण) नामक बन्दरगाहों का उल्लेख किया है। यहाँ रोमन सिक्के प्राप्त हए हैं और सीरिया के लोगों का यहाँ अस्तित्व था। बंगाल एवं आसाम के समान उसी समय (यदि पहले नहीं) मध्य एवं पश्चिमी भारत में बौद्ध धर्म फला। ईसा के पूर्व एवं उपरान्त मध्य एवं पश्चिमी भारत में बौद्ध धर्म का प्राबल्य था, जैसा कि साँची, भिलसा, भरहुत, नासिक एवं कार्ला की गुफाओं से विदित है । इसके अतिरिक्त न्यायमूर्ति मित्र ने स्वयं कहा है कि बौद्ध धर्म में अपना सम्पत्ति सम्बन्धी व्यवहार (कानून) नहीं था (लॉ क्वार्टरली रिव्यू, जिल्द २१, पृ० ३८८) । बरमा जैसे बौद्ध देशों ने मनुस्मृति से ही उत्तराधिकार एवं दाय के कानून उधार लिये। जीमतवाइन की अपेक्षा विज्ञानेश्वर स्त्रियों के प्रति अधिक उदार हैं, क्योंकि जब तक स्मृतियों में स्पष्ट रूप से घोषित न हो तब तक जीमूतवाहन स्त्रियों को उत्तराधिकारी रूप में नहीं ग्रहण करते । महानिर्वाण-तन्त्र ने बहिन एवं विमाता को समीप का उत्तराधिकारी माना है और चाचा की विधवा पत्नी एवं पुत्र की पुत्री को भी उत्तराधिकारी घोषित किया है, किन्तु दायभाग के अन्तर्गत ये सब उत्तर धिकारी नहीं माने जाते । मिताक्षरा सम्प्रदाय की एक शाखा, जो पश्चिमी भारत में व्यवहारमयूख की शाखा से द्योतित होती है, अन्य सभी सम्प्रदायों से स्त्रियों के अधिकार के मामले में अधिक उदार है। दक्षिण भारत के कुछ जिलों तथा नम्बूद्री ब्राह्मणों एवं नायर लोगों की जातियों में मरुमक्कटयम् एवं अलियसन्तन् कानून प्रचलित हैं जो स्त्रियों के प्रति अत्यधिक उदार हैं,किन्तु उन पर बौद्ध या तान्त्रिक प्रभाव है ऐसा किसी ने भी प्रतिपादित नहीं किया है । धार्मिक क्षमता वाले सिद्धान्त से सम्बन्धित दायभाग की विशेषता महानिर्वाण-तन्त्र में दिये गये कानूनों से मिताक्षरा सम्प्रदाय द्वारा मान्य सगोत्रता (सपिण्डता या एक शरीरान्यय) के सिद्धान्त की अपेक्षा अधिक दूर हैं। न्यायमूर्ति मित्र जीमूतवाहन के काल के विषय में त्रुटिपूर्ण हैं। हमने ऊपर देख लिया है कि जीमूतवाहन ने अपनी मान्यताएं उद्योत-जैसे लेखकों एवं देवल आदि स्मृतियों पर आधारित की हैं । यह कहा जा सकता है कि दायभाग की विचित्र मान्यता की सन्तोषजनक व्याख्या नहीं दी जा सकती। दायभाग के सिद्धान्त का उद्गम स्थानीय एवं सर्वथा स्वतन्त्र है।
विभाग (विभाजन) की परिभाषा मिताक्षरा ने यों की है--जहाँ संयुक्त स्वामित्व हो वहाँ सम्पूर्ण सम्पत्ति के भागों की निश्चित व्यवस्था ही विभाग है१३ । दायभाग को इस परिभाषा में कई दोष दृष्टिगोचर होते हैं, जिनमें प्रमुख यह है कि कई पुत्रों का संयुक्त स्वामित्व सर्वप्रथम पिता की सम्पूर्ण सम्पत्ति में उत्पन्न कर देना और तव ऐसा कह देना कि आगे चलकर यह संयुक्त स्वामित्व नष्ट हो जाता है, बड़ा ही बोझिल एवं असुविधाजनक है। दायभाग की दी हुई विभाग की परिभाषा यह है--यह (किसी निश्चित भूमिभाग या धन पर) गोली या ढेला फेंकने से भाग्यवशप्राप्त (बहुतों में एक के) स्वामित्व का द्योतक है, जो (स्वामित्व) केवल (भूमि एवं धन के दाय के) एक अंश से मिल कर उदित होता है, किन्तु जो अनिश्चित है, क्योंकि (किसी व्यक्ति के लिए) दाय के किसी विशिष्ट अंश को स्पष्ट रूप से बताना असम्भव है, क्योंकि कौन अंश किसका है, यह कहने के लिए कोई निश्चित वात ज्ञात नहीं रहती। दायभाग यह स्वीकार नहीं करता कि दाय के सभी अंशों पर (विभाजन के पूर्व) सहभागियों में स्वामित्व संयुक्त रूप से उत्पन्न हो जाता है; इसका कथन है कि यह उसके (दाय के) अंशों में उत्पन्न होता है, किन्तु कौन अंश किसका है यह
१३. विभागो नाम द्रव्यसमुदायविषयाणामनेकस्वाम्यानां तदेकदेशेषु व्यवस्थापनम् । मिताक्षरा (याज्ञ० २।११४); व्यवहारसार (पृ० २१२) ; अपरार्क (पृ० ७२६) ।
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