________________
८४४
धर्मशास्त्र का इतिहास
निमूल (अप्रामाणिक) माना है । इसी से डा० जॉली (टैगोर व्याख्यान, पृ० ११०)ने यहाँ तक कह डाला है कि विज्ञानेश्वर (मिताक्षरा के लेखक ने या उनके पूर्व के लोगों ने उस सूत्र का अपनी ओर से प्रणयन कर डाला है। किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि विश्वरूप पहले से ही जन्म से या विभाजन से उत्पन्न होने वाले स्वत्व के विषय में जागरूक हो उठे थे एवं प्राचीन टीकाकार मेधातिथि (लगभग ६०० ई०) ने जन्म-स्वत्ववाद की बात का समर्थन किया था और बिना नाम दिये कुछ अन्तर के साथ उस सूत्र को मनु (६।१५६) की व्याख्या करते समय उन्होंने उद्धृत किया था। और देखिये मनु (६।२०६) । स्पष्ट है, विज्ञानेश्वर को किसी नवीन सूत्र को अपनी ओर से गढ़ने की आवश्यकता नहीं थी, इतना ही नहीं; स्वयं याज्ञवाल्क्य एवं अन्यों के वचन इस सिद्धान्त को व्याख्यापित करने के लिए पर्याप्त थे। यह भी विचारणीय है कि दायभाय ने यह स्वीकार किया है कि कुछ स्मृतियों में जन्म-स्वत्ववाद की चर्चा हुई है (क्वचिद् जन्मनैवेति), और उसने यह कहा है कि इन शब्दों को उसी रूप में नहीं लेना चाहिए, प्रत्युत अप्रत्यक्ष रूप से ही जन्म को दाय का कारण मानना चाहिए, क्योंकि पिता एवं पूत्र का सम्बध जन्म पर ही आधारित है और
ही पत्र का स्वत्व उदित होता है (अत: यद्यपि स्वत्व प्रत्यक्ष रूप से मत्य के उपरान्त ही उदित होता है, किन्त जन्म उसका कारण कहा जा सकता है और पत्र प्रथम उत्तराधिकारी है क्योंकि यह अपने पिता के पुत्र के रूप में जन्म लेता है)। दायतत्त्व यह नहीं कहता कि गौतम का सूत्र अमूल (अप्रामाणिक) है, प्रत्युत वह दायभाग के समान ही उसकी व्याख्या करके उसे काट देना चाहता है। संक्षेप में, हम निम्न चार बातों द्वारा दायभाग एवं मिताक्षरा का अन्तर समझ सकते हैं
(१) दायभाग जन्म-स्वत्ववाद नहीं स्वीकार करता, किन्तु मिताक्षरा ने इसे स्वीकार किया है। (२) दायभाग का कथन है कि दाय का उत्तराधिकार तथा उत्तराधिकारियों का व्र.म धार्मिक पात्रता या
क्षमता के सिद्धान्त से निश्चित होता है। किन्तू मिताक्षरा सम्प्रदाय का कथन है कि इस विषय में रक्त
सम्बन्ध ही नियमन उपस्थित करता है। (३) दायभाग मानता है कि संयुक्त परिवार (भाई या चचेरे भाई आदि) के सदस्य अपने भाग (अंश)
प्रायः पृथग्भाव से रखते हैं और नाप-जोख या सीमा-निर्धारण द्वारा किये गये विभाजन के बिना भी
उनका विनिमय कर सकते हैं। .(४) दायभाग की यह मान्यता है कि संयुक्त परिवार में भी पति की मृत्य पर संततिहीन होने पर भी विधवा
अपने पति के अंश (भाग) का अधिकार पाती है। किन्तु मिताक्षरा में यह अधिकार उसे नहीं प्राप्त है।
उत्तराधिकार एवं दाय से सम्बन्धित नियमों के विषयों में अन्य भारतीय स्थानों के काननों (नियमों या व्यवहारों) से बंगाल में ही इतनी भिन्नता क्यों है ? इस कथन के समाधान के लिए कतिपय प्रयत्न किये गये हैं। इस विषय में न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र ने एक अपना ही सिद्धान्त उद्घोषित किया है (ला क्वार्ट रली रिव्यू, जिल्द २१, १६०५ ई०, पृ० ३८०-३६२ एवं जिल्द २२, सन् १६०६, पृ.० ५०-६३), जिसका तात्पर्य यह है--बंगाल समुद्र के पास था, व्यावसायिक अभिकांक्षा से वह भरपूर था, दूर-दूर के व्यापारीगण यहाँ नयी-नयी मान्यताएं लाते रहे, यहाँ बौद्धधर्म शताब्दियों तक राज्यधर्म था, बौद्ध तन्त्रवाद का यहाँ प्राबल्य था। अत: ब्राह्मणवादी सिद्धान्तों को, जिन्हें ऋषियों ने घोषित किया था और जो मिताक्षरा एवं अन्य ग्रन्थों में व्याख्यापित है, यहाँ सम्मान नहीं प्राप्त हो सका। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि बौद्ध धर्म ने स्त्रियों को बहत प्रभावित किया और महानिर्वाण के समान अन्य तन्त्र-ग्रन्थों में प्रकृति के सुकुमार नारी-सुलभ तत्त्व को ऊँचा उठाया, प्राचीन सम्पत्ति सम्बन्धी व्यवहारों (विशेषतः नारी-सम्बन्धी) में सुधार हआ, व्यक्तिगत स्वामित्व की धारणाएँ एवं नारियों के स्वत्वाधिकार-सम्बन्धी नियन्त्रणों के निराकरण की भावनाएं बंगाल में उठ खड़ी हुई, जिन्हे जीमूतवाहन ने अपने दायभाग में सम्मिलित कर लिया। किन्तु इन विद्वान् का कथन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org