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जन्म-स्वत्ववाद और उपरम-स्वत्ववाद
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व्यक्ति जो कमाता है, वह उसका है और वह उसको अपनी सम्पत्ति है। किन्तु मनु (८.४१६), नारद (अभ्युपेत्या शुश्रूषा, ४१) के मत से तीन प्रकार के व्यक्ति सम्पत्तिहीन कहे गये हैं; पत्नी, पुत्र एवं दास, वे जो कुछ कमाते हैं वह पति या पिता या स्वामी का होता है ।' २ किन्तु शबर स्वामी-जे से प्राचीन लेखक का मत है कि मनु का यह वचन यह नहीं कहता कि पत्नी या पुत्र जो कुछ कमाते हैं उस पर उनका स्वत्व नहीं रहता, बल्कि इस वचन का तात्पर्य यह
के वे अपने अजित धन को स्वतन्त्र रूप से (बिना पति या पिता की सहमति से) नहीं खर्च कर सकते। मन की इस धारणा को दायभाग एवं मिताक्षरा, दोनों सम्प्रदायों ने स्वीकार कर लिया है । मिताक्षरा ने मनु (८१४१६) की व्याख्या की तुलना में कहा है कि देवल, नारद एवं मनु (६।१०४) ने जो यह कहा है कि पिता के रहते उसके हाथ की सम्पत्ति पर पुन का स्वत्व नहीं रहता उसका यही अर्थ लगाना चाहिए कि पुत्र पिता के रहते, या उसकी अपनी अजित सम्पत्ति पर, स्वतन्त्र रूप से व्यय करने का अधिकार नहीं रखता। दूसरी ओर दायभाग एवं दायतत्त्व ने उपर्युक्त कथनों एवं याज्ञ• (२।१२१), विष्णु० आदि के मतों को (जो जन्म से ही पुत्र का स्वामित्व ठहराते हैं) अपने ढंग से सिद्ध किया है । दायभाग ने याज्ञ० (२।१२१) की दो व्याख्याएं की हैं; यदि क के ख एवं ग दो पुत्र हों, जिनमें ग अपने घ पुन को छोड़कर पहले मर जाय और आगे चलकर क भी मर जाय, तब याज्ञवल्क्य के मत से दोनों अर्थात् १ (क का पुत्र) एवं घ (क का पौत्र) क द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति को बराबर-बराबर पायेंगे, ऐसा नहीं होगा कि सारी सम्पत्ति ख को ही मिल जायगी (क्योंकि ऐसा कहा जा सकता है कि वह घ की अपेक्षा क के अधिक समीप है), क्योंकि ख एव घ दोनों पार्वण-श्राद्ध में क को पिण्ड-दान करते हैं, अतः दोनों में सम्पत्ति के मामले में कोई अन्तर न होगा । "सदशं स्वाम्यम्" शब्द पुन एवं पौत्र की इसी बराबरी (सादृश्य) की ओर संकेत करते हैं। दूसरी व्याख्या धारेश्वर की है; जब पिता विभाजन का इच्छुक होता है तो वह अपनी स्वाजित सम्पत्ति अपने पुत्रों में अपनी इच्छा के अनुसार बाँट सकता है, किन्तु जो सम्पत्ति वह अपने पिता से प्राप्त किये रहता है (अर्थात् उसके पुत्रों के पितामह से जो सम्पत्ति उसे प्राप्त होती है) उस पर उसका वही अधिकार होता है जो उसके पुत्रों का होता है और उसे वह स्वेछापूर्वक असमान रूप से विभाजित नहीं कर सकता। दायभाग ने इस बात का विरोध किया है कि याज्ञ० (२।१२१) ने ऐसा कहा है कि पुत्र अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध अपने पितामह की सम्पत्ति के विभाजन की मांग कर सकता है या पिता एवं पुत्र का पितामह की सम्पत्ति में बराबर-बराबर अंश है । यही बात विष्णु एवं अन्य ग्रन्थों में भी पायी जाती है, अर्थात् पितामह की सम्पत्ति में पिता एवं पुत्र समान स्वामी हैं, पर "तुल्यं स्वाम्यम्" या "सममंशित्वम्" शब्दों से यह नहीं कहा जा सकता कि पिता एवं पुत्र उसमें समान अंश (भाग) पा सकते हैं (दायभाग २।१८, पृ० ३२)।
उपर्य क्त विवेचन से प्रकट होता है कि दायभाग एवं मिताक्षरा के सम्प्रदायों का आरम्भ उन्ही द्वारा सर्वप्रथम नहीं किया गया, प्रत्युत दोनों के पीछे मान्य प्राचीनता भी थी। मनु, नारद एवं देवल की स्मृतियों तथा उद्योत एवं धारेश्वर-जैसे प्रमुख लेखकों ने उपरम-स्वत्ववाद का सिद्धान्त घोषित कर दिया था और याज्ञ०,विष्णु० एवं बहस्पति ने बहुत पहले ही जन्म-स्वत्ववाद का सिद्धान्त अपना लिया था। विश्वरूप जो याज्ञवल्क्यस्मृति के टीकाकार हैं (६वीं शताब्दी के प्रथम चरण में) कहना है कि स्वत्व जन्म से ही उत्पन्न हो जाता है (याज्ञ० २११२४) । गौतम के "उत्पत्त्यैव......आदि" सूत्र को उद्धृत कर मिताक्षरा ने अपना सिद्धान्त घोषित किया है। यह सूत्र आज कहीं नहीं मिलता और न अपरार्क आदि ने इसका उल्लेख ही किया है। श्रीकृष्ण तर्कालकार (दायभाग १।२१) ने इसे
१२. भार्या पुत्रश्च दासश्च त्रय एवाधनाः स्मताः। यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तदधनम् ॥ मनु (८।४१६); उद्योगपर्व (३३।६४); नारद (अभ्यु० ४१) ।
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