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________________ ८४२ धर्मशास्त्र का इतिहास है कि माता-पिता के रहते पुत्र स्वामी नहीं होते), इससे प्रकट है कि पुत्रों को जन्म से अधिकार नहीं प्राप्त होता । और भी, स्वत्व शास्त्रानुमोदित होता है (जैसा कि गौतम ने कहा है ) शास्त्रों ने जन्म को क्रय आदि के लिए स्वामित्व का कारण नहीं माना है । अतः पुत्र या पुत्रों का स्वामित्व पूर्व स्वामी के स्वत्व के हटने से ( मृत्यु या पतित होने या संन्यासी हो जाने के उपरान्त) ही उत्पन्न होता है। जब तक एक ही पुत्र है तो वह पिता की मृत्यु के उपरान्त सम्पत्ति का स्वामित्व पाता है और वहाँ विभाजन की आवश्यकता ही नहीं है । किन्तु जब कई पुत्र होते हैं तो उन्हें संयुक्त संपत्ति का स्वामित्व मिलता है और विभाजन के उपरान्त ही उन्हें पैतृक सम्पत्ति के पृथक्-पृथक् भागों का स्वामित्व प्राप्त हो पाता है और अन्तिम स्वरूप ही बहुधा देखने में आता है, अतः विभाजन के उपरान्त ही स्वत्व ( विभागात् स्वत्वम्) की प्राप्ति होती है । यदि यह सिद्धान्त कि स्वत्व का उद्गम केवल विभाजन से ही होता है, शाब्दिक रूप में लिया जाय तो इकलौता पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति पाता हुआ भी उस पर स्वामित्व नहीं पा सकता; जैसा कि व्यवहारनिर्णय ने तर्क उपस्थित किया है, क्योंकि उसके विषय में विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता। जन्म से ही स्वामित्व होता है; ऐसा मानने वाले निम्नोक्त तर्क उपस्थित करते हैं- ऐसा उपस्थापित किया गया है कि स्वामित्व की धारणा लौकिक है-अर्थात् यहसांसारिक प्रयोगों पर आधारित है, इसी से इसे लोकसिद्ध कहा जाता है । सर्वसाधारण को यह ज्ञात है कि पुत्र जन्म से ही पैतृक सम्पत्ति के अधिकारी होते हैं इसके अतिरिक्त गौतम का एक वचन भी है--' आचार्यों के मत से किसी व्यक्ति को स्वामित्व जन्म के कारण ही प्राप्त हो जाता है ।' बहुत-सी अन्य स्मृतियों के भी वचन हैं, यथा-- याज्ञ० (२1१२१), बृहस्पति, कात्यायन ( ८३६), व्यास एवं विष्णु ( १७/२), जो स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि पितामह की सम्पत्ति में पिता एवं पुत्र के स्वामित्व सम्बन्धी अधिकार एक समान हैं ( अत: पुत्र स्वत्व जन्म से ही है ) । जो लोग ऐसी धारणा रखते हैं वे विरोधी मत का खण्डन निम्न रूप से करते हैं; वैदिक अग्नियाँ स्थापित करने के सिलसिले में वैदिक वचन स्पष्ट कहते हैं कि कुछ निश्चित अवस्था तक पिता को पुत्र की उत्पत्ति के उपरान्त भी धार्मिक संस्कारों के लिए पैतृक सम्पत्ति व्यय करने का अधिकार है । इसी प्रकार कुलपति एवं कुल व्यवस्थापक के रूप में, वेदों एवं स्मृतियों द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार, उसे अपरिहार्य धार्मिक कृत्यों के लिए पैतृक सम्पत्ति (अचल सम्पत्ति को छोड़कर) को व्यय करने का अधिकार है ; वह स्नेहोपहार के रूप में दान कर सकता है; कुटुम्ब-पालन एवं विपत्ति में कुटुम्ब की रक्षा के लिए पैतृक सम्पत्तिको व्यय कर सकता है। इतना ही नहीं, वह या कुल-व्यवस्थापक विपत्ति में या कुल के लाभ के लिए या आवश्यक धार्मिक कृत्यों (यथा श्राद्ध आदि) के लिये अचल सम्पत्ति को बन्धक रख सकता है या उसका विक्रय कर सकता है। भोग एवं रक्षण से स्वश्व एक पृथक् धारणा है । यह कई प्रकार का होता है, यथा-सशरीर एवं अशरीर, पूर्ण स्वामित्व एवं संयुक्त स्वामित्व, निक्षेपधारी स्वत्व ( स्वामित्व ) एवं कल्याणकारी स्वत्व, आयत्त स्वत्व एवं वैवायत्त ( संदिग्ध ) स्वत्व | शास्त्रों के मत से स्वामी के अधिकारों पर नियन्त्रण भी पाये जाते हैं; कुटुम्ब का ध्यान रखकर ही दान-पुण्य किया जा सकता है, ऐसा नहीं है कि स्वामी सब कुछ दान ही कर दे और कुटम्ब के लोग भूखों मरें (याज्ञ० १७५२ ; 'स्वं कुटुम्बाविरोधेन देयम्' स्मृतिसंग्रह, 'न च स्वमुच्यते । ) ' स्पष्ट है, सम्पत्ति वह नहीं है जिसे जैसा चाहें (अपनी इच्छा के अनुसार ) व्यय कर दें या ले देलें, प्रत्युत यह वह है जिसे ( केवल उचित परिस्थितियों में ) लिया - दिया जा सके, अर्थात् यह लेन-देन की योग्यता पर निर्भर रहती है। क्योंकि राजा, शास्त्र नियमों, जनमत और अपने झुकावों एवं आसपास के लोगों के दबाव एवं नियंत्रण से कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का स्वेछा से उपयोग नहीं भी कर सकता । किन्तु यह ठीक है कि जिस पर स्वत्व है उसे सिद्धांततः स्वेच्छानुसार खर्च किया जा सकता है। मदनरत्न ने एक उदाहरण दिया है-अन्नागार में रखा हुआ सूखा बीज अंकुरित नहीं होता, किन्तु उसमें अंकुरित होने की योग्यता रहती ही है । सम्पत्ति परसीमाओं की कई कोटियां हैं, यथा--पिता का अधिकार, विधवा का अधिकार आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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