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स्वत्व की उत्प
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नवादकम् ' ) । मिताक्षरा पराशरमाधवीय ( ३, पृ० ४८१ ), सरस्वती विलास ( पृ० ४०२ ) आदि के मत से रिक्थ एवं संविभाग, जो गौतम के सूत्र में पाये जाते हैं, क्रम से अप्रतिबन्ध दाय एवं सप्रतिबन्ध दाय हैं ।
स्वत्व (स्वामित्व ) लोकसिद्ध है या शास्त्रों के वचनों पर आधारित है, इसके विषय में मिताक्षरा का कथन है -- मनु ( ११३१६३ = विष्णुधर्मसूल ५४ / २८ ) के मत से जब ब्राह्मण गर्हित कर्मों से धन प्राप्त करते हैं (यथा किसी कुपात्र या पतित व्यक्ति से दान-ग्रहण करना, या ऐसी क्रय-वृत्ति से जो उनकी जाति के लिए निन्द्य है, धन-ग्रहण करना) तो वे उस धन के दान से पूत मन्त्रों (गायत्री आदि) के जप से तथा तपस्या द्वारा ही पाप से छुटकारा पा सकते हैं । यदि स्वत्व का उद्गम शास्त्र द्वारा ही हो, तो शास्त्रनिन्द्य साधनों से प्राप्त किया हुआ धन व्यक्ति का धन ( सम्पत्ति ) नहीं कहलायेगा और न उसके पुत्र उसका विभाजन ही कर सकते हैं, क्योंकि उसे सम्पत्ति की संज्ञा प्राप्त ही नहीं होती। यदि स्वत्व लौकिक है तो उस दशा में गहित साधनों से उत्पन्न धन व्यक्ति की सम्पत्ति की संज्ञा पाता है और उस व्यक्ति के पुत्र अपराधी नहीं होते ( भले ही प्राप्तिकर्ता को प्रायश्चित्त करना पड़े) और सम्पत्ति (दाय ) का विभाजन कर सकते हैं, क्योंकि मनु ( १०1११५ ) ने दाय को अनुमोदित सात कारणों ( साधनों) में गिना है। किन्तु मदन रत्न ने इस उक्ति का अनुमोदन नहीं किया है । इसका तर्क सक्षेप में यों है -- मनु ( ११।१६३ ) ने केवल प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है, किन्तु यह नहीं कहा है कि इस प्रकार का प्राप्त धन प्राप्तिकर्ता की सम्पत्ति नहीं कहलता, इसी कारण से बुरे दान या साधन से प्राप्त धन पर मनु ने कोई विशिष्ट अर्थ-दण्ड आदि नहीं घोषित किया है, जैसा कि उन्होंने चोरी करने पर चोर के लिए किया है और चोरी के धन को चोर की सम्पत्ति नहीं माना एवं उसके विभाजन पर चोर के पुल्लों को दण्ड देने की बात कही है। व्यवहारप्रकाश ( पृ० ४१३ - ४२४ ) ने मिताक्षरा एवं मदनरत्न के सिद्धान्तों की ओर संकेत किया है और प्रथम का अनुमोदन किया है ।
उपर्युक्त विवेचन से एक अन्य प्रश्न की ओर हम बढ़ते हैं, क्या स्वामित्व ( स्वत्व) विभाजन से उद्भूत होता है या विभाजन किसी व्यक्ति के ( जन्म द्वारा ) धन से उत्पन्न होता है ? अति प्राचीन काल से ही धर्मशास्त्रकार इस प्रश्न पर विचार करते आये हैं । विवाद भेद के मूल में पुत्रों, पौत्रों एवं प्रपौतों का विषय ही रहा है। सभी लेखक इस विषय में एकमत हैं कि पुत्रों, पौत्रों एवं प्रपोत्रों के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति अपने सम्बन्धियों के धन पर जन्म से अधिकार नहीं पाते । जो लोग जन्म से पुत्रों का स्वत्व नहीं मानते वे निम्नोक्त रूप से तर्क करते हैं
यदि पुत्र पैतृक सम्पत्ति पर जन्म से ही अधिकार रखते हैं तो पुत्रोत्पत्ति पर पिता बिना पुत्र की आज्ञा के धार्मिक कृत्य (वैदिक अग्नियों में ) नहीं कर सकता, क्योंकि इन कृत्यों से पैतृक सम्पत्ति का व्यय होता है । और इससे इस उक्ति का कि "उस व्यक्ति को, जिसके बाल अभी काले हैं और जो पुत्रवान् है, वैदिक अग्नि में यज्ञ करना चाहिए" खण्डन हो जाता है। इतना ही नहीं, इससे स्मृतियों के ऐसे कथन, यथा--"यदि पिता अपने कतिपय पुत्रों में किसी एक को विशेष अनुग्रहवश कुछ प्रदान करता है ( नारद, दायभाग, ६), या पति प्रेमवश अपनी पत्नी को कुछ देता है तो उसका विभाजन नहीं होता," निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि इस प्रकार के प्रदान ( इस सिद्धान्त पर कि पुत्र जन्म से ही सम्पत्ति के अधिकारी होते हैं) बिना पुत्रों की सहमति के नहीं किये जा सकते । इसके अतिरिक्त कुछ स्मृतियों (यथा देवल आदि) ने पिता के रहते पुत्रों के स्वस्व को नहीं माना है । ११ मनु ( ६ १०४) एवं नारद ( दायभाग, २) ने व्यवस्था दी है कि पिता के स्वर्गलोक जाने के उपरान्त ही पुत्रों को सम्पत्ति का विभाजन करना चाहिए ( क्योंकि मनु का कथन
११. पितर्युपरते पुत्रा विभजेयुर्धनं पितुः । अस्वाम्यं हि भवेदेषां निर्दोष पितरि स्थिते ।। देवल ( दायभाग ११८, पृ० १३ ) ; दीपकलिका (याज्ञ० २।११४ ) ; विवादरत्नाकर (१०४५६ ) ; पराशरमाधवीय ( ३, पृ०४८० ) ।
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