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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास सभी के लिए स्वत्व के पाँच उद्गम या साधन बताये हैं; रिक्थ ( वसीयत ), क्रय ( खरीद), संविभाग ( विभाजन), परिग्रह ( बलवश ली हुई सम्पत्ति) एवं अधिगम (अनायास गुप्त धन कोष आदि पर अधिकार ) । गौतम ने आगे यह भी कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के विषय में क्रम से दान, विजय, कृषि-लाभ एवं स्वत्व के अतिरिक्त साधन हैं । वे लोग जो स्वत्व को शास्त्रानुमोदित मानते हैं, बताते हैं, कि गौतम के रिक्थ शब्द का अर्थ है दाय और विभाग का अर्थ है दाय का विभाजन, जो दाय के किसी भाग पर किसी व्यक्ति का सर्वथा पृथक् स्वत्व स्थापित करता है ।१° इन लोगों का कथन है कि गौतम ने जन्म को स्वामित्व के साधन के रूप में स्पष्ट रूप से नहीं ग्रहण किया है। मिताक्षरा तथा उसके अनुयायियों का कहना है कि स्वत्व का अर्थ हमें शास्त्र के आधार पर न लेकर सामान्य प्रयोग के अर्थ में लेना चाहिए । उन्होंने कई तर्क दिये हैं; (१) जिस प्रकार चावल भौतिक उपयोग की वस्तु हैं, उसी प्रकार स्वत्व का भी भौतिक आदान-प्रदान, यथा क्रय या विक्रय हो सकता है। जिसके पास भौतिक पदार्थ नहीं होंगे वह बिक्री या बन्धक रखने का कार्य नहीं कर सकता । आहवनीय अग्नि का उपयोग शास्त्रीय कर्मों के अतिरिक्त अन्य लौकिक कार्यों में नहीं हो सकता । चावल का भात बनाने में आहवनीय अग्नि का उपयोग किया जा सकता है, किन्तु तब तो वह साधारण अग्नि के उपयोग- जैसा हुआ, न कि आहवनीय अग्नि-सा, जैसा कि शास्त्र में पाया जाता है। (२) शास्त्रों के ज्ञान से शून्य म्लेच्छों एवं नीच लोगों में भी क्रय आदि से उत्पन्न स्वामित्व ( स्वत्व ) की धारणाएँ पायी जाती हैं। (३) प्रभाकर (जैमिनी ४।१।२) एवं भवनाथ ( नयविवेक के लेखक, जो मीमांसा के विद्वान् माने जाते हैं) का कथन है कि स्वामित्व, जो मिश्रित साधनों (यथा क्रय) से उत्पन्न होता है, भौतिक उपयोग या लोकसिद्ध या अनुभूति का विषय है । भवनाथ का कथन है; प्राप्ति के ऐसे साधन, यथा जन्म, क्रय आदि लोकसिद्ध हैं । स्वामित्व के साधनों के विषय की मान्यताएँ शास्त्रों से नहीं उद्भूत हुई, प्रत्युत वे स्मृतियों आदि के बहुत पहले से ह ज्ञात थीं। इसका तात्पर्य है कि स्वामित्व प्रप्ति के साधन की धारणा शास्त्रों से पुरानी है, केवल शास्त्रों ने उसे आगे चलकर सुव्यवस्थित ढंग से रख दिया है | अतः गौतमस्मृति ( १०1३६) ने स्वामित्व के कतिपय ज्ञात साधनों को केवल उनकी उचित सीमाओं एवं क्षेत्रों में बाँध दिया है, जिनमें पाँच तो सभी के लिए समान और दान केवल ब्राह्मणों के लिए है इस रूप में यह पद्धति पाणिनीय है । पाणिनि ने नये शब्दों को न रखा और न उनकी नवीन उत्पत्ति की, उन्होंने भाषा में प्रयुक्त होनेवाले शब्द ग्रहण किये और उनके निर्माण की विधि बतायी। इसी प्रकार गौतम ने केवल स्वामित्व के उद्गमों के एक निश्चित मिश्रित नियम का निरूपण किया। मिताक्षरा एवं इसके अनुयायियों का कथन है कि लोक में प्रचलित स्वामित्व - साधनों के कतिपय कारणों या साधनों को गौतम ने केवल दुहराया है ( व्यवहारमयूख; 'लोकसिद्वकारणा यह ८४० १०. जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसकी सम्पत्ति दाय हो जाती है जिसे बहुत-से व्यक्ति पा सकते हैं । इस रूप में वह सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है । अतः उसका स्वामित्व, संयुक्त होने के नाते, रिक्थ कहा जाता है । संयुक्त स्वामी लोग विभाजन द्वारा दाय के निश्चित भागों के पृथक्-पृथक् स्वामी हो जाते हैं। इस प्रकार विभाजन स्वत्व का एक साधन हो गया (कई लोगों का स्पष्ट भागों पर स्पष्ट स्वामित्व स्थापित हो जाता है) । किन्तु जब उत्तराधिकारी केवल एक व्यक्ति होता है तो वहाँ संविभाग (विभाजन) नहीं होता और वहाँ स्वामित्व का साधन रिक्थ ही हो जाता है न कि संविभाग । जब उत्तराधिकारी कई होते हैं तो इस दृष्टिकोण से रिक्थ केवल संयुक्त स्वामित्व का साधन हो जाता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जीमूतवाहन के अनुमान के आधार पर रिक्थ एवं संविभाग एक-दूसरे से मिल-से जाते हैं और भली प्रकार से उनमें वह अन्तर नहीं किया जा सकता, जिसे मिताक्षरा ने अपने सिद्धान्त द्वारा व्यक्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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