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दाय, स्वत्व और स्वामी की परिभाषा
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उत्पन्न करना' (देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २५) । किन्तु दाय में मृत व्याक्ति किसी अन्य का स्वामित्व उत्पन्न करने के लिए अपना स्वामित्व नहीं छोड़ता। किन्तु दोनों में किसी वस्तु के स्वामित्व का त्याग रहता है, यही एक साम्य है । यद्यपि दाय शब्द 'दा' धातु से बना है किन्तु इसके अर्थ में परम्परा निहित है।
मिताक्षरा एवं उसका अनुसरण करने वाले ग्रन्थ, यथा पराशरसाधवीय, मदनरत्न, व्यवहारमयूख, व्यवहार प्रकाश आदि ग्रन्थों ने दाय को दो कोटियों में विभाजित किया है-अप्रतिबन्ध एवं सप्रतिबन्ध । प्रथम में पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र अपने सम्बन्ध से ही अपने पिता, पितामह एवं प्रपितामह द्वारा आगत बंशपरम्परा के धन को प्राप्त करते हैं इसमें पितायापितामह की उपस्थिति से पुत्रों एवं पौत्रों की कुल सम्पत्तिके प्रति अभिरुचि में कोई प्रतिबन्ध नहीं लगता, क्योंकि वे उसी कुल में उत्पन्न हुए रहते हैं । इसो से इसे, अप्रतिबन्ध वाय की संज्ञा मिली है। किन्तु जब कोई व्यक्ति अपने चाचा की सम्पत्ति पाता है या कोई पिता जब अपने पुत्र की सम्पत्ति संतानहीन चाचा या संतानहीन पुत्र के मृत हो जाने पर पाता है तो यह सप्रतिबन्ध दाय कहलाता है, क्योंकि इन स्थितियों में भतीजा या पिता क्रम से अपने चाचा या पुत्र की सम्पत्ति पर तब तक स्वत्व नहीं पाता जब तक चाचा या पुत्र जीवित रहता है या जब तक चाचा या पुत्र का पुत्र या पौत्र रहता है। स्पष्ट है, स्वामी की जीवितावस्था अथवा अस्तित्व या पुत्र का अस्तित्व भतीजे या पिता के उत्तराधिकार में बाधा उपस्थित करता है । अतः यह सप्रतिबन्ध दाय कहलाता है।
किन्तु दायभाग, दायतत्त्व तथा कुछ अन्य ग्रन्थों ने दाय को उपर्युक्त दो भागों में नहीं बाँटा है। इन ग्रन्थों के अनुसार सभी प्रकार के दाय सप्रतिबन्ध हैं, अर्थात् पूर्व स्वामी की मृत्यु या पतित हो जाने या सन्यासी हो जाने के उपरान्त ही किसी अन्य में स्वामित्व उत्पन्न होता है (दायभाग १।३०-३१, पृ० १८; विवादताण्डव ६६)। इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त को उपरम-स्वत्ववाद (मृत्यु के उपरान्त ही स्वामित्व की उत्पत्ति के सिद्धान्त) की संज्ञा मिली है, और मिताक्षरा के सम्प्रदाय के सिद्धान्त को जन्म-स्वत्ववार के नाम से पुकारा जाता है। यही दायभाग एवं मिताक्षरा का प्रमुख भेद है । दायभाग के अनुसार पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र पिता या अन्य पूर्वज की सम्पत्ति पर कुल में जन्म हो जाने के कारण ही स्वत्व का अधिकार नहीं पाते ।
'स्व' एवं 'स्वामी' एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, दोनों में एक ही प्रकार की भावना निहित है और दोनों एक ही प्रश्न के दो स्वरूप हैं । 'स्व' का अर्थ है 'जो किसी का है' अर्थात् सम्पत्ति; इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है किसी वस्त से और अप्रत्यक्ष संकेत है उस वस्तु के स्वामी से। 'स्वामी' का अर्थ है 'मालिक' या 'अधिकारी'; इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है उस व्यक्ति से जो कोई वस्तु रखता है और अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उस वस्तु से है। शिरोमणि भट्टाचार्य के मत से स्वत्व अपने रूप से पृथक एक पदार्थ कोटि है, किन्तु अन्य लोग इसे योग्यता (शक्ति) मानते हैं।
दाय की परिभाषा देने में स्वत्व की धारणा उत्पन्न हो गयी, अतः बहुत-से निबंधों में यह प्रश्न खड़ा हो गया कि स्वत्व का अर्थ हम शास्त्रों में ढूढ़े या उसे सामान्य प्रयोग के अर्थ में लें। बहुत-से लेखकों के मन मे,अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में, एक अन्य धारणा भी बंध गयी, यथा-केवल जन्म लेने से ही स्वत्व की उत्पत्ति नहीं हो जाती । कुछ लोगों ने स्वत्व के अर्थ के लिए केवल शास्त्रों पर ही निर्भर रहना अंगीकार किया, यथा--गौतम (१०३६-४२) ने
६. दीयते इति व्युत्पस्या दायशम्बो ददातिप्रयोगश्च गौणः, मृतप्रजितादिस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकपरस्वत्वोत्परितफलसाम्यात् । न तु मृतादीनां तत्र त्यागोस्ति । ततश्च पूर्वस्वामिसम्बन्षाधीनं तत्स्वाम्योपरमे यत्र द्रव्ये स्वस्वं तत्र निरूढो बायशवः । दायमांग (१।४-५) । और देखिए दायतत्त्व (पृ० १६१ एवं १६३) । व्यवहारप्रकाश (पृ. ४११-४१२) इन शम्बों को उत्त कर इनको आलोचना करता है।
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