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________________ ८३८ धर्मशास्त्र का इतिहास दायमाग नामक व्यवहार-पद में दो मुख्य विषयों, यथा--विभाजन एवं दाय का निरूपण किया गया है। लगभग एक सहस्र वर्षों से दो सम्प्रदाय प्रसिद्ध रहे हैं, जो मिताक्षरा एवं वायभाग संज्ञाओं से द्योतित होते रहे हैं, क्योंकि इन नामों वाले दो ग्रन्थों ने ही प्रमुखता ग्रहण की । दायमाग का प्रचलन बंगाल में रहा है और भारत के अन्य भागों में मिताक्षरा का प्रावल्य रहा है । किन्तु आधुनिक काल के बंगाल के कुछ कुलों में मिताक्षरा के कानून भी प्रतिष्ठित रहे हैं। ___ दायमाग सम्प्रदाय के मुख्य संस्कृत-ग्रन्थ तीन हैं। जीमूतवाहन का दायभाग, रघुनन्दन का दायतत्व एवं श्रीकृष्ण तर्कालंकार का दायक्रम-संग्रह । मिताक्षरा सम्प्रदाय चार उपससम्प्रदायों में बंटा है, जिनमें प्रमुख ग्रन्थ मिताक्षरा के अतिरिक्त कुछ पूरक ग्रन्थ भी हैं जो उसके कुछ सिद्धान्तों को रूपान्तरित भी करते हैं, यथा-वाराणसी (काशी) सम्प्रदाय (इसका प्रमुख ग्रन्थ है वीरमित्रोदय), मिथिला सम्प्रदाय (यह विवादरत्नाकर, विवादचन्द्र एवं विवादचिन्तामणि पर आधारित है), महाराष्ट्र या बम्बई सम्प्रदाय (इसमें गुजरात, बम्बई द्वीप एवं उत्तरी कोंकण के लिए व्यवहारमयूख प्रमुख ग्रंथ है और कुछ बातों में मिताक्षरा से इसकी अधिक महत्ता है; अन्य आधार ग्रन्थ है वीरमित्रोक्य एवं निर्णयसिन्धु) एवं द्रविड़ या मद्रास सम्प्रदाय (इसके लिए आधार ग्रंथ हैं स्मृतिचन्द्रिका, वरदराज का व्यवहारनिर्णय, पराशमाधवीय एवं सरस्वतीविलास) । कुछ प्रान्तों में नियमों का अन्तर अवश्य है किन्तु बंगाल को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में मिताक्षरा की प्रमुखता रही है। निबन्धों में दाय एवं विभाग शब्द कई प्रकार से द्योतित किये गये हैं। नारद (दायभाग, पद्य १) ने दायमाग व्यवहार-पद को ऐसा माना है जिसमें पुन अपने पिता के धन के विभाजन का प्रबन्ध करते हैं। स्मृतिचन्द्रिका तथा अन्य ग्रन्थों में उद्धृत स्मृतिसंग्रह के मत से दाय वह धन है जो माता या पिता से किसी पुरुष को प्राप्त होता है। निघण्ठु ने विभाजित होने वाले पैतृक धन को दाय कहा है । दायभाग, मिताक्षरा एवं अन्य ग्रन्थों ने नारद के 'पित्र्यस्य' (पिता का) एवं 'पुनः' (पुत्रों द्वारा) को केवल उदाहरण के रूप मे लिया है। जहाँ कहीं दायभाग शब्द प्रयुक्त होता है उसका वास्तविक अर्थ है सम्बन्धियों (पिता, पितामह आदि) के धन का सम्बन्धियों (पुत्रों, पौत्रों आदि) में विभाजित होना और इसका कारण है मृत स्वामी से उनका सम्बन्ध । यह मनु एवं नारद के कथनों से भी व्यक्त है, क्योंकि इन दोनों ने माता के धन का विभाजन दायभाग के अन्तर्गत ही रखा है। मिताक्षरा ने याज्ञ. (२१११४) की उपक्रमणिका में कहा है कि दाय का अर्थ है वह धन जो उसके स्वामी के सम्बन्ध से किसी अन्य की सम्पत्ति (धन) हो जाता है । व्यवहारमयूख (पृ०६३) ने दाय को उस धन की संज्ञा दी है जो विभाजित होता है और जो उन लोगों को नहीं प्रात्त होता जो फिर से एक-साथ हो जाते हैं। ___दाय और दान शब्द 'दा' धातु से बने हैं, किन्तु दोनों के अर्थ में अन्तर है । दान में दो बातें पायी जाती हैं; 'किसी वस्तु पर विद्यमान अपने अधिकार (स्वामित्व) को छोड़ना' और 'उसी वस्तु पर किसी अन्य का अधिकार ७. विभक्तव्यं पितृद्रव्यं दायमाहुर्मनीषिणः । निघण्ट (स्मृतिचन्द्रिका ३, पृ० २५५; व्यवहारमयूख १० ६३); पितृद्वारागतं द्रव्यं मातृद्वारागतं च यत् । कथितं दायशब्देन तद्विभागोधुनोच्यते ॥ स्मृतिसंग्रह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २५५; व्य० म०पृ०६३)। २. पित्र्यस्येति पुर्वरिति च द्वयमपि सम्बन्धिमात्रोपलक्षणं सम्बन्धिमात्रेण सम्बन्धिमात्रमनविभागेपि बाब. भालपकायोगात् । पापनाग (१३); तत्र दायशब्देन यद्धनं स्यामिसम्बन्बादेव निमित्ताद अस्प स्वं नवति तदुच्यते (मिताबारा); नसंघृष्टविनमनीयं वनं वापः । व्यवहारमयूख (पृ. ६३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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