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________________ अध्याय २७ दायभाग (सम्पत्ति-विभाजन) दाय शब्द अति प्राचीन वैदिक साहित्य में भी प्रयुक्त हुआ है। 'ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम' (ऋग्वेद ॥३ २।४) में 'शतदाय' शब्द को सायण ने 'प्रभूत दाय' (वसीयत) से युक्त' के अर्थ में लिया है । ऋग्वेद (१०।११४।१०) के 'श्रमस्य दाय विभजन्त्येभ्यः' में दाय का अर्थ सम्भवतः 'भाग' या 'पुरस्कार' है। तैत्तिरीय संहिता एव ब्राह्मण-ग्रन्थों में दाय 'पैतृक सम्पत्ति' या केवल 'सम्पत्ति' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नाभानेदिष्ठ की गाथा में आया है कि मनु ने अपना दाय अपने पुत्रों में बाँट दिया (तै० सं० ३।१६४)। यहाँ दाय का अर्थ 'धन' है, जैसा कि तै० सं० के एक अन्य मन्त्र में कहा गया है, यथा 'अतः वे अपने ज्येण्ठ पुत्र को धन से प्रतिष्ठित करते हैं (२।५।२७)। ताण्ड्य ब्राह्मण (१६।४।३-४) में आया है--(मानवों के ) पुत्रों में जो धन का अधिक भाग या श्रेष्ठ भाग दाय के रूप में ग्रहण करता है, उसी को लोग ऐसा पुत्र मानते हैं जो सबका स्वामी होता है । सूत्रों एवं स्मृतियों में दाय के रूप में आनेवाला एक दूसरा शब्द 'रिक्थ' भी ऋग्वेद (३।३१।२) में आया है,३ यथा--शरीर का पुत्र अपनी बहिन को पैतृक सम्पत्ति (रिक्थ) नहीं देता, प्रत्युत उसके पति के पुत्र को उसका पान बनाता है।' वैदिक साहित्य में दायाद(सह-अंशग्राही अर्थात् अपने साथ धन का भाग पानेवाला) शब्द भी आया है, यथा--'अतः शक्तिहीन होने के कारण स्त्रियाँ (सोम का) भाग नहीं पाती और एक नीच मनुष्य से भी धीमे बोलती हैं । ४ अर्थववेद (५।१८।६) में सोम को ब्राह्मणों का दायाद कहा गया है। विश्वामित्र अपने आध्यात्मिक दाय का भाग लेने के लिए शुनःशेप को आमन्त्रित करते हैं(ऐतरेय ब्राह्मण ३३॥५) और अपने पुत्रों को उसका (शुनःशेप का) अनुसरण करने को कहते हैं एवं यह कहते हैं कि वह (शुनःशेप) उन्हें, उनके दाय (सम्पत्ति) और उनकी विद्या को स्वीकार करेगा। निरुक्त (३।४) ने दाय एवं दायाद शब्दों को उद्धृत अंशों में दर्शाया है । पाणिनि (२।३।३६ एवं ६।२।५) में दायाद शब्द आया है। १. मनुः पुत्रेभ्यो दायं व्यभजत् । तै० सं० (३।१।६।४); तस्माज्ज्येष्ठं पुत्रं धनेन निरवसाययन्ति । ते० सं० (२।५।२७) । आपस्तम्ब० (२।६।१४।११-१२) ने दोनों उक्तियों को उद्धृत किया है। २. तस्माद्यः पुत्राणां दायं धनतममिवोपैति तं मन्यन्ते यमेवेदं भविष्यतीति । ताण्ड्य० (१६॥४॥३-४) । ३. न जामये तान्वो रिकथमारेक् चकार गर्भ सनितुनिधानम् । ऋ० (३।३१।२) । निरुक्त (३।६) ने इसका अर्थ यों कहा है--'न जामये भगिन्य तान्वः आत्मजः पुत्रः रिक्यं प्रारिचत् प्रादात् । चकार एनां गर्भनिधानी सनितुर्हस्तग्राहस्य ।' ४. तस्मास्त्रियो निरिन्द्रिया अदायादीरपि पापात्पुस उपस्तितरं वदन्ति। तै० सं० (४।८।२) । दायाद 'दायमादत्ते (आ के साथ वा युक्त) से निकला है । ___५. न ब्राह्मणो हिंसितव्योग्निः प्रियतनोरिव । सोमो ह्यस्य दायाद इन्द्रो अस्याभिशस्तिपाः ॥ अथर्व० (५।१८।६)। ३. उपेया दैवं मे दायं तेन व त्वोपमन्त्रय इति । ऐ० ब्रा० (३३॥५); एष वः कुशिका वीरो देवरालस्तमन्वित । युष्मांश्च दायं म उपेता विद्यां यामु च विद्मसि ॥ ऐ० ब्रा० (३३।६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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