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________________ ८३६ धर्मशास्त्र का इतिहास १1१०,४।४।२, ४।४/१६, २१३१५७-५८) ने भी द्यूत से सम्बन्धित शब्दों के निर्माण की बात कही है, यथा-अव्ययीभाव समास के विषय में अक्षपरि, शलाकापरि; आक्षिक, आक्षयूतिक (वैर) आदि । आपस्तम्ब० (२।१०।२५॥१२-१३) ने भी द्यूत के विषय में लिखा है। महाभारत (सभापर्व ५८३-१६) में युधिष्ठिर ने कहा है कि ललकारने पर वे पासा खेलने से विमुख नहीं होंगे। युधिष्ठिर की चूत-क्रिया से प्रकट है कि अच्छे व्यक्ति भी द्यूत खेलने से पथ म्रष्ट हो सकते हैं और उनमें मानसिक उद्वेग उत्पन्न हो सकता है, उनकी नैतिकता, कर्तव्यशीलता, प्रेम, श्रद्धा आदि वृत्तियाँ नष्ट हो सकती हैं। स्मृतिकारों एवं राजनीतिज्ञों ने राजा के लिए यह एक बड़ा दुर्गुण माना है । ब्रह्मपुराण (१७१।२६-३८) ने इस की भर्त्सना की है। वेद ने भी भर्त्सना की है (ऋग्वेद १०।३४।१०-११) । द्यूत से किसी अन्य पाप की तुलना नहीं हो सकती। इससे अत्यन्त समझदार व्यक्ति की मति का भी नाश हो जाता है, अच्छा व्यक्ति बरा हो जाता है और भाँति-भाँति के मतभेद एवं व्यसन उत्पन्न हो जाते हैं।३ २. आहूतोऽहं न निवर्ते कदाचित्तदाहितं शाश्वतं वै व्रतं मे ॥ सभापर्व (५८।१६) । ३. अशात महाप्राज्ञ सतां मतिविनाशनम् । असतां तत्र जायन्ते भेदाश्च व्यसनानि च ॥ उद्योगपर्व (१२८) ६) । द्यूतं निषिद्ध मनुना सत्यशौचधनापहम् । बृहस्पति (स्म ० च ० २, ३३१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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