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________________ जुआ और बाजी लगाना ८३५ धन लेकर ( बन्दी बनाकर या अन्य उपाय से ) विजयी को देना पड़ता था और ईमानदारी (प्रत्यय) एवं संयम से काम लेना पड़ता था (याज्ञ० २ २००; कात्यायन ६४० ; नारद १६ । २ ) । कात्यायन ( ६३७) ने लिखा है कि सभिक अपने जेब से जयी को जीत का धन दे सकता था और हारे हुए से तीन पखवारे के भीतर या संदेह होने पर तुरन्त प्राप्त कर सकता था । कात्यायन (१०००) ने लिखा है कि यदि द्यूत की छूट मिले तो वह खुले स्थान में द्वार के पास खिलाया जाना चाहिए, जिससे भले व्यक्ति धोखा न खायें और राजा को कर मिले। यदि द्यूत खुले स्थान में खिलाया गया हो और वहाँ सभिक उपस्थित रहा हो तथा उसने राजा को शुल्क दे दिया हो तो उस स्थिति में, जब कि हारा हुआ व्यक्ति विजयी को जीता हुआ धन न दे, तो राजाको चाहिए कि वह जयी को वह धन दिला दे, अर्थात् सभिक जयी को धन दिलाने के उत्तरदायित्व से बरी रहता है (याज्ञ० २।२०१ ) | नारद ( १६ । ६-७ ) एवं याज्ञ ० (२।२०२ ) के मत से द्यूत-बाजी गुप्त स्थान में हुई हो, राजा की आज्ञा न रही हो तथा झूठे पासों एवं चालाकियों का सहारा लिया गया हो तो सभिक तथा द्यूत खेलने वाले को धन प्राप्ति का कोई अधिकार नहीं प्राप्त होता और उसे दण्डित होना पड़ता ( माथे पर कुत्ते के पैर का या अन्य निशान दाग दिया जाता है) तथा निष्कासित हो जाने का दण्ड भी प्राप्त हो सकता है | नारद (१६।६ ) का कथन है कि निष्कासित जुआरियों के गले में पासों की माला पहना दी जाती है । कात्यायन (१४१) एवं बृहस्पति के मत से अबोध व्यक्ति यदि गुप्त स्थान में जुआ खेले तो वह उत्तरदायित्व से बरी हो सकता है किन्तु दक्ष जुआरी हार जाने पर ऐसी छूट नहीं पाता, किन्तु यदि दक्ष व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति जुए में हार जाय तो उसे केवल आधा देना पड़ता है । कात्यायन ( ६४२ ) के मत से यदि सभिक ईमानदार है तो जुआरियों के झगड़ों, जय घोषित करने एवं धोखे के पासों आदि के निर्णय में उसका फैसला अन्तिम होता है। नारद ( १६४), याज्ञ० (२| २०२),बृहस्पति एवं कात्यायन (६४३) ने व्यवस्था दी है कि यदि जीत एवं हार के विषय में कोई विग्रह हो तो राजा द्यूत खेलने वालों को निर्णय देने एवं साक्ष्य देने के लिए तैनात कर सकता है (यहाँ पर जुआरियों को साक्ष्य देने के लिए छूट है, अन्य नहीं), किन्तु यदि ऐसे द्यूत खेलने वाले विग्रहियों ते वैर रखते हों तो राजा को स्वयं झगड़े का निपटारा करना पड़ता है । याज्ञ ० (२/२०३ ) ने खूत - सम्बधी सभी नियमों को समाह्वय के लिए भी स्वीकार किया है। बृहस्पति का कथन है कि जिसका पशु हारता है उसके स्वामी को बाजी का धन देना पड़ता है ( वि० र० पू० ६१४; सरस्वतीविलास पु० ४८६) । सरस्वतीविलास ( पृ० ४८७) ने विष्णु एवं एक टीका ( विष्णुधर्मसूत्र की सम्भवतः भारचि-टीका) का उल्लेख करते लिखा है कि राजा को प्रत्येक लड़ने वाले पशु के स्वामी से बाजी के धन का चौथाई भाग मिलता है । हारा हुआ पशु (भैंसा एवं कुश्तीबाज को छोड़कर) चाहे वह जीवित हो या मृत, जयी पशु के स्वामी को प्रात हो जाता है । मानसोल्लास ( जिल्द ३, पृ० २२६) ने कुश्ती की प्रतियोगिताओं, मुर्गों की लड़ाइयों आदि से सम्बन्धित राजा के आमोद-प्रमोद का विशद वर्णन उपस्थित किया है । दशकुमारचरित में द्यूत की ओर कई संकेत मिलते हैं । द्वितीय उच्छ्वास (पु० ४७) में द्यूत की २५ कलाओं का उल्लेख मिलता है, जहाँ यह आया है कि सभिक के निर्णय पर ही द्यूतसम्बन्धी झगड़े तय होते हैं, १६,००० दीनारों की बाजी में जयी को आघा मिलता हैं और शेष आधा सभिक तथा द्यूतभवन के वासियों में बंट सकता है। द्यूत अति प्राचीन दुर्गुणों में एक है। ऋग्वेद (१०1३४) में एक जुआरी का रुदन वर्णित है। वहाँ कई स्थानों परत का संकेत मिलता है (ऋग्वेद १/४१२६, ७/८६/६ ) । अथर्ववेद (४।१६।५, ४३८) में भी द्यूत के पासों एवं का उल्लेख मिलता है । वाजसनेयी संहिता (३०।१८) में " बक्ष राजाय कितवम्" शब्द आये हैं । कुछ यज्ञों यथा राजसूय में. पासा एक महत्वपूर्ण विषय माना गया है। देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ३४ । पाणिनि (२1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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