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अध्याय २६
द्यूत और समाह्वय . मनु (६।२२३), नारद (१६३१) एवं बृहस्पति ने द्यूत (जा) को वह खेल कहा है जो पासे, चर्म-खण्डों, हस्तिदन्त-खण्डों आदि से खेला जाता है तथा जिसमें कोई बाजी लगी रहती है, और समाह्वय को वह खेल माना है जिसमें जीवों, यथा-मुर्गों, कबूतरों, भेड़ों, भैसों एवं मल्लों (कुश्तीवाजों) की लड़ाई होती है और बाजी लगी रहती है। मनु ने द्यूत को बुरा खेल माना है (६२२१, २२२, २२४-२२६)। उन्होंने द्यूत एवं समाह्वय को राजा द्वारा वजित करने को कहा है, क्योंकि इनसे राज्य का नाश होता है। उन्होंने इसे खुलेआम चोरीकी संज्ञा दी है और ऐसा करनेवालों के लिए शरीर-दण्ड की व्यवस्था दी है। क्योंकि उनके द्वारा भले लोग भी वंचनाओं में फंस जाते हैं। मनु (६२२७ = उद्योगपर्व ३७।१६)ने लिखा है कि प्राचीन काल में द्यूत से वैमनस्य उत्पन्न होता रहा है अतः मनुष्य को आनन्द के लिए भी इमे नहीं खेलना चाहिए, क्योंकि यह बुरी लत है । कात्यायन (६३४) ने भी यही बात कही है। याज्ञ० (२।२०३) एवं कौटिल्य (३।२०) ने राज्य के संरक्षण में किसी केन्द्रस्थान में धूत खेलने की छूट दी है, क्योंकि इससे चोरों का पता लग जाता है।'
बृहस्पति ने उपर्युक्त विरोधी मतों की ओर संकेत करते हुए कहा है-सत्य (सचाई या ईमानदारी), शौच (पवित्रता) एवं धन की रक्षा के लिए द्यूत मनु द्वारा वर्जित ठहराया गया है, किन्तु अन्य लोगों ने इसे वजित नहीं किया, क्योंकि इससे चोरों का पता चलता है। किन्तु उन लोगों ने भी इसे द्यूतभवन के अध्यक्ष की उपस्थिति में ठीक माना है, क्योंकि इससे राज्य को कर मिलता है। इस प्रकार द्यूत खिलाने वाले को सभिक तथा बाजी के धन को (जिसे हारने वाले को देना पड़ता है) पण या ग्लह (याज्ञ० २।१६६) कहा जाता है। नारद (१६८) ने एक विकल्प भी दिया है; सभिक द्वारान खिलाये जाने पर यदि खेलने वाला बाजी का भाग राजा को देकर कहीं अन्य स्थान पर भी द्यूत खेलता है तो उसे दण्ड नहीं मिलता। याज्ञ० (२।१६६) के मत से, जैसी कि पराशरमाधवीय (३, पृ० ५७४) एवं व्यवहारप्रकाश (पृ० ५६५) ने टीका की है, १०० पणों की या अधिक की बाजी रहने पर सभिक को ५ प्रतिशत या १/२० भाय तथा १०० पणों से कम रहने पर १० प्रतिशत या १/१० भाग देना पड़ता था। अपरार्क (पृ० ८०२) ने टीका की है कि सभिक को विजयी से ५ प्रतिशत तथा हारनेवाले से १० प्रतिशत मिलता था । किन्तु नारद (१६२) ने सभिक के लिए पूरी बाजी का १० प्रतिशत निर्धारित किया है। कौटिल्य (३।२०)ने ५ प्रतिशत शुल्क लगाया है और सभिक को यूत की सामग्री (पासा, चर्म-खण्ड आदि), जल एवं स्थान आदि देने के उपलक्ष्य में किराया लेने की छूट दी है। राजा की ओर से संरक्षण मिलने के कारण सभिक को निश्चित शल्क देना पड़ता था। उसे हारे हए व्यक्ति से बाजी
१. चूतमेकमुखं कार्य तस्करज्ञानकारणात् । याम० (२।२०३); धूताध्यक्षो धूतमेकमुखं कारयेबन्यत्रीव्यतो द्वादशपणो दण्डः, गूडाजोविज्ञापनार्यम् । अर्थशास्त्र (३३२०); ध्रुवं घूतात्कलियस्माद्विषं सर्पमुखादिव । तस्माताजा निवतेत विषये व्यसनं हि तत् ॥ कात्यायन (विवादरत्नाकर, पृ० ६११) ।
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