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धर्मशास्त्र का इतिहास
उन प्रव्रजिताओं की ओर संकेत किया है जो नीच कुल की होती थीं और सनातन धर्म को नहीं मानती थीं, तथा अन्तिम दो में ऐसी प्रव्रजिताओं की ओर संकेत है जो उच्च कुल की सन्यासिनी होती थीं । और देखिये मनु ( ८1३६३ ) | वेश्या की इच्छा के विरुद्ध संभोग करने से कौटिल्य (४।१३) एवं याज्ञ० (२२६१ ) में क्रम से १२ एवं १४ पणों का दण्ड कहा गया है । अप्राकृतिक व्यभिचार के लिए कौटिल्य ( ४।१३), याज्ञ० (२२८६ एवं २६३), विष्णु० (५/४४ ) एवं नारद ( १५/७६ ने क्रम से १२, २४, १०० एवं ५०० पुणों का दण्ड लगाया है ।
पुरुष एवं स्त्री की जाति, विवाहिता एवं अविवाहिता, गुप्ता ( रक्षिता) एवं अगुप्ता के आधार पर दण्ड की विविध कोटियाँ थी । देखिये गौतम (१२।२), वसिष्ठ ० ( २१1१1१ - ५ ), मनु ( ८ ३५६), विष्णु० (५/४१ ), याज्ञ० (२।२६६, २६४), नारद (१५।७० ) आदि, जहाँ उच्च एवं नीच जाति के अपराधियों के विषय में लिखा हुआ है, गौतम ० ( १२/३ ), मनु (८।२७४ ३७८, ३८२-२८५), कौटिल्य (४/१३) आदि, जहाँ रक्षित एव अरक्षित नारियों के साथ व्यभिचार करने के दण्डों के विषय में उल्लेख है ; मनु ( ८ | ३६४-३७०), याज्ञ० (२।२८५),२८७), कौटिल्य (४।१२), नारद (१५।७१-७२ ) आदि जहाँ अविवाहित नारियों के साथ व्यभिचार करने वालों के दण्डों के विषय में लिखा हुआ है ।
अति प्राचीन सूत्रों एवं स्मृतियों में अपेक्षाकृत कठिन दण्ड कहे गये हैं । हम इस प्रकार के विवेचन के विस्तार में यहाँ नहीं पड़ेंगे । दो-एक उदाहरण पर्याप्त होंगे । गौतम ( ३।१४-१५ ) एवं मनु ( ८1३७१ ) ने व्यभिचारियों को कुत्तों से नुचवा डालने को कहा है किन्तु याज्ञ० (२/२८६ ) इस विषय में कुछ मृदुल है । आपस्तम्ब० ( २१०१२६ | २०।२१ ने विवाहित नारी के साथ संभोग करने पर शिश्न एवं अण्ड काट लेने को कहा है किन्तु अविवाहित नारी के साथ ऐसा करने पर केवल सम्पूर्ण सम्पत्ति छीन लेने की व्यवस्था दी है । किन्तु याज्ञ० ( २२८८) मनु (८/३६६ ) एवं नारद (१५/७२ ) ने लिखा है कि यदि कोई पुरुष अपनी ही जाति की अविवाहित नारी के साथ संभोग करे तो उसे राजा द्वारा दण्ड नहीं मिलना चाहिए, प्रत्युत उसे आभूषण आदि के साथ उस नारी से सम्मानपूर्वक विवाह कर लेने की छूट दी जानी चाहिए ।
याज्ञ० (२।२६०) एवं नारद ( १५/७६) ने किसी के घर में या बाहर रहने वाली दासी के साथ संभोग करने को अपराध माना है और याज्ञ० ने ऐसा करने पर ५० पणों का दण्ड लगाया है । और देखिये इस ग्रन्थ का द्वितीय भाग (अध्याय १६) जहाँ वेश्याओं का वर्णन हैं । मनु (८।३६२ ) ने जहाँ परनारी से बात करने पर दण्ड-व्यवस्था दी है वहीं अभिनेताओं, संगीतज्ञों एवं अपनी पत्नियों की वृत्ति से जीविका चलानेवालों के लिए छूट दी है और उनकी स्त्रियों से संभोग करने को अपराध नहीं माना है, क्योंकि वे स्वयं गुप्त रहकर अपनी स्त्रियों को अन्य लोगों से मिलनेजुलने की छूट देते हैं ।
स्त्रीपुंधर्म ( पति-पत्नी का धर्म )
इस विषय में हमने बहुत कुछ इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग (अध्याय ११ ) में ही लिख दिया है ऋणादान के विषय में चर्चा करते हुए एक दूसरे के उत्तरदायित्व पर भी प्रकाश डाला जा चुका है । । दायभाग के अध्याय में हम सम्पत्तिविभाजन, वसीयत ( रिक्थ ) एवं जीविकासाधन के विषय में उल्लेख करेंगे । स्त्रीपुंधर्म के अन्तर्गत नारद ने विवाह से संबंधित क्रिया-संस्कारों, वर-वधू के निर्वाचन, वधू-जाति संबंधी नियन्त्रण के नियमों, विवाह के अभिभावकों, चुने गये वरों एवं वधुओं के दोषों, विवाह-प्रकारों, पुनर्भू एवं स्वैरिणी स्त्रियों, नियोग-प्रथा, अवैधानिक संभोग, व्यभिचारिणी स्त्रियों के दण्ड, पुनर्विवाह, वर्णसंकर एवं मिश्रित जातियों के विषय में उल्लेख किया है । मनु ( ६ । १ ) ने भी पति-पत्नी के कर्त्तव्य के विषय में लिखने की बात कही है । मनु ( ६ । २ ) का कथन है कि पति का और पुरुषों का प्रथम कर्तव्य
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