SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यभिचार के दण्ड ८३१ बलात्कार एवं धोखे से संभक्त नारी को दण्ड नहीं मिलता था, उसे केवल कृच्छु या पराक नामक प्रायश्चित्त (व्रत) करना पड़ता था । जब तक वह प्रायश्चित्त से पवित्र नहीं हो जाती थी उसे घर में सुरक्षा के भीतर रहना पड़ता था, शृंगार बनाव नहीं करना होता था, पृथिवी पर सोना पड़ता था तथा केवल जीवन निर्वाह के लिए भोजन मिलता था । प्रायश्चित्त के उपरान्त वह अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त कर लेती थी । याज्ञ० (२।२८६ ) एवं बृहस्पति के अनुसार एक-दूसरे की सहमति से व्यभिचार करने पर पुरुष को अपनी ही जाति की नारी के साथ ऐसा करने पर अधिकतम दण्ड, अपने से हीन जाति के साथ ऐसा करने पर उसका आधा दण्ड देना पड़ता था, किन्तु अपने से उच्च जाति वाली नारी के साथ ऐसा करने पर मृत्यु दण्ड मिलता था और नारी के कान आदि काट लिये जाते थे । कुछ ऋषियों ने नाक, कान आदि काटने का विरोध किया है । यम के मत से यदि नारी की सम्मति से व्यभिचार हुआ हो तो मृत्यु दण्ड देना या अंग-विच्छेद ( सौन्दर्य-भंग) करना या विरूप बनाना अच्छा नहीं, प्रत्युत उसे निकाल बाहर करना श्रेयस्कर माना गया है । कात्यायन (४८७) ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि सभी प्रकार के अपराधों में जो दण्ड पुरुष को मिलता है उसका आधा ही नारी को मिलना चाहिए; यदि पुरुष को मृत्यु दण्ड मिले तो वहां नारी का अग विच्छेद ही पर्याप्त है । ४ नारद (१५।७३-७५ ) के मत से निम्नोक्त नारियों से संभोग करना पाप है और ऐसा करने पर शिश्न - कर्तन से कम दण्ड नहीं मिलता। ५ विमाता, मौसी ( माता की बहिन ), सास, चाचा या मामा की पत्नी ( अर्थात् चाची या मामी), फूफी ( पिता की बहिन ), मित्रपत्नी, शिष्यपत्नी, बहिन, बहिन की सखी, वधू (पतोहू) पुत्री, गुरु- पत्नी, सगोता ( अपने गोत्र वाली स्त्री), शरणागता ( शरण में आयी हुई स्वी), रानी, प्रव्रजिता ( संन्यासिनी ), धात्री ( दूध पिलाने वाली), साध्वी एवं उच्च जाति की स्त्री । और देखिये मनु (११।१७०-१७१), कौटिल्य (४।१३), याज्ञ० ( ३।२३१-२३३), मत्स्यपुराण (२२७।१३६ - १४१), जिनमें अन्तिम तीन में इस प्रकार के अपराध के लिए शिश्न- कर्तन एवं प्रायश्चित्त स्वरूप प्राण-दण्ड ( ब्राह्मण को छोड़कर) की व्यवस्था दी हुई है और स्त्री के लिए (यदि उसकी भी सहमति हो तो) मृत्यु दण्ड देने को कहा गया है। बृहद् - यम ( ३७ ), आपस्तम्ब (पद्य, ६ । १ ) एवं यम (३५) ने लिखा है कि माता, गुरुपत्नी, बहिन या पुत्री के साथ व्यभिचार करने पर अग्नि प्रवेश से बढ़कर दूसरा प्रायश्चित्त नहीं है। यह विचित्र बात है कि कौटिल्य (४/१३) एवं याज्ञ० (२।२६३ ) ने प्रत्रजिता - गमन पर केवल २४ पणों का दण्ड लगाया है और नारद ( १५।७४) एवं मत्स्य ० । • (२२७१४१) ने इसे अत्यन्त महान अपराध माना है । सम्भवतः प्रथम दो नं पृ० ३६६-३६७; परा० मा० ३, पृ० ४६६ ) । स्त्रीषु वृत्तोपभोगः स्यात्प्रसह्म पुरुषो यदा । वधे तत्र प्रवर्तत कार्यातिक्रमणं हि तत् ॥ कात्यायन (स्मृतिच० २, पृ० ३२०; व्य० प्र० पृ० ३६७; व्यवहारमपूत्र पृ० २४४ ) । छद्मना कामयेद्यस्तु तस्य सर्वहरो दमः । अंकयित्वा भगांकेन पुरान्निर्वासयेत्तत्तः ॥ बहस्पति (स्मृतिच० २पृ० ३२०; वि० ० पृ० ३८६) । ४. सर्वेषु चापराधेषु पुंसो योर्थदमः स्मृतः । तबधं योषितो दद्युर्वधे पुंसोङ्गकर्तनम् ॥ कात्यायन (४८७, स्मृति० २, पृ० ३२१; व्यवहारमयूख पृ० २४६ ) । ५. माता मातृष्वसा श्वश्रूर्मातुलानी पितृष्वसा । पितृव्यसखिशिष्यस्त्री भगिनी तत्सखी स्नुषा ॥ दुहिताचार्यभार्या च सगोत्रा शरणागता । राज्ञी प्रव्रजिता धात्री साध्वी वर्णोत्तमा च या ॥ आसामन्यतमां गत्वा गुरुतल्पग उच्यते । शिश्नस्योत्कर्तनं तस्य नान्यो दण्डो विधीयते ॥ नारद ( १५।७३-७५ ) । विवादरत्नाकर (१०३६२) में आया है --मातात्र जननीव्यतिरिक्ता पितृपत्नी । गुप्तविषयमेतत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy