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दुर्घटना; प्रेरक, घातक एवं उनके सहायकों का दण्डक्रम
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हो तो असावधानी से हाँकने पर दुर्घटना होने पर गाड़ीवान को दण्डित किया जाता है (मनु ८।२६३-२६५) । नारद (पारुष्य ३२) के मत से पुत्र के अपराध के कारण पिता दण्डित नहीं होता और न घोड़े, कुत्ते एवं बन्दर के दोष के कारण उनका स्वामी; किन्तु जब स्वामी जान-बूझकर उन्हें उत्तेजित कर किसी को हानि पहुँचाता है तो दण्डित होता है। असावधानी से एवं तेजी से हाँकने वाले गाड़ीवान से यदि किसी मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसे चोर के समान दण्डित होना पड़ता है। किन्तु यदि गाय, घोड़ा, ऊँट या हाथी मर जाय तो चोरी का आधा दण्ड देना पड़ता है और छोटे पशुओं की (दुर्घटना से) हत्या होने पर २०० पण दण्ड देने पड़ते हैं। कौटिल्य (३।१६), मनु (८।२८५), याज्ञ० (२।२२७-२२६) एवं विष्णु ० (५५५-५६) ने वृक्षों, पौधों , शाखाओं, पुष्पों एवं फलों के नाश पर उनकी उपयोगिता एवं पवित्रता के अनुसार दण्ड लगाया है ।
स्मृतियों ने साहस के अपराधों एवं असावधानता से या त्रुटिवश किये गये अपराधों के दण्डों में भेद प्रदर्शित किया है। जान-बूझकर किसी को उसके घर, वाटिका या खेत से वंचित कर देने पर ५०० पणों का दण्ड तथा गलती से ऐसा कर देने पर २०० पणों का दण्ड लगता है।
उकसाने या उभाड़ने वाले (प्रोत्साहक) को दण्डित करने के लिए कई नियम बने हुए थे। याज्ञ० (२।२३१) एवं कौटिल्य (३।१७) ने प्रोत्साहक को वास्तविक अपराधी के दण्ड का दूना तथा उसको जो यह कहकर उभाड़ता है कि "जितने धन की आवश्यकता पड़ेगी दूगा," चौगुना दण्ड देने को कहा है । कात्यायन (७६८) एवं बृहस्पति के मत से यदि कई व्यक्ति किसी की हत्या करें तो उसे जिसने मर्मस्थल पर घात किया है, अर्थात् जो मर्मप्रहारक होता है उसी को हत्या का दण्ड मिलता है। कात्यायन (७६८) एवं बृहस्पति ने लिखा है कि जो अपराध का प्रारम्भ करता है, जो (साहस करने का) मार्ग दिखाता है, जो अपराधी को आश्रय देता है या अस्त्र-शस्त्र देता है, जो अपराधी को खिलाता है, जो प्रहार करने को उभाड़ता है, जो मारे गये व्यक्ति को नष्ट करने का उपाय बताता है, जो अपराध करते समय उपेक्षा प्रदर्शित करता है, जो मारे गये व्यक्ति का दोष अभिव्यक्त करता है, जो अपराध का अनुमोदन करता है, जो योग्य होने पर भी अपराध नहीं रोकता--ये सब अपराध के कर्ता कहे जाते हैं और राजा को चाहिए कि वह उन्हें उनकी योग्यता एवं दोष के अनुसार दण्डित करे। और देखिये आपस्तम्ब० (२।११।२६।१) । जो अपराध का आरम्भ करता है या वैसा करने को उभाड़ता है उसे बृहस्पति के मत से वास्तविक दोषी का आधा दण्ड मिलता है।
याज्ञ० (२।२३२-२४२) ने साहस से संबंधित कई अपराधों का वर्णन किया है और तदनुसार दण्ड-व्यवस्था दी है । यथा--मुहरबंद (तालेबंद) वर में प्रवेश करना, पड़ोसियों एवं कुलिकों (दायादों) को हानि पहुंचाना, पतित न हुए अपने माता-पिता, पुत्रों, भाइयों या बहिनों का परित्याग करना, विधवा के साथ व्यभिचार करना, चाण्डालों द्वारा जान-बूझकर उच्च जाति को अपवित्र करना, जाली सिक्का बनाना या झूठा बटखरा या तराजू बनाना तथा राजकर्मचारियों या अन्य व्यक्तियों की कुचिकित्सा करना । इन पर हम यहाँ विचार नहीं करेंगे।
८. एकस्य बहवो यत्र प्रहरन्ति रुषान्विताः। मर्मप्रहारको यस्तु घातकः स उदाहृतः।। बृहस्पति (विवादरला. कर पृ० ३७३, व्यवहारप्रकाश पृ० ३६५); मर्मघाती तु यस्तेषां यथोक्तं दापयेद्दमम् ॥ बृह० (स्मृतिचन्द्रिका २, प० ३१२, वि० र० पृ० ३७३) ।
६. आरम्भकृत् सहायश्च तथा मार्गानुदेशकः । आश्रयः शस्त्रदाता च भक्तदाता विकर्मिणाम् ॥ युद्धोपदेशकश्चैव तद्विनाशप्रवर्शकः । उपेक्षाकारकश्चैव दोषवक्तानुमोदकः॥ अनिषेद्धा क्षमो यः स्यात्सर्वे ते कार्यकारिणः । यथाशक्त्यनुरूपं तु दण्डमेषां प्रकल्पयेत् ।। कात्या० (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३१२, पराशरमाधवीय ३, १० ४५५, विवादरत्नाकर पृ० ३७५, व्य० प्र० पृ० ३६५) ।
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