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भुखमरी में चोरी की कुछ छूट
८२७ हारीत, काण्व एवं पौष्करसादि के मत से चाहे थोड़ा हो या कोई भी परिस्थिति हो, बिना आज्ञा के किसी का कुछ लेना चोरी है, किन्तु वार्ष्यायणि के मत से कुछ अपवाद हैं, यथा--स्वामी को, थोड़ी मात्रा में मुद्ग (मूंग) या माष (उरद) या घास गाड़ी में जुते हुए बैलों को खिलाते समय मना नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि इन वस्तुओं को खिलाने वाला अधिक मात्रा में खिलायेगा तो वह चोर समझा जायगा। शान्तिपर्व (१।१६५।११-१३), मनु (११।१६-१८) एवं याज्ञ० (३१४३) में आया है कि यदि बिना अन्न के कोई ब्राह्मण या कोई अन्य व्यक्ति तीन दिनों तक उपवास किये हो तो चौथे दिन वह कहीं से भी, चाहे किसी का खलिहान हो या खेत हो या घर हो, एक दिन के भोजन के लिए वस्तु ग्रहण कर सकता है, किन्तु प्रश्न पूछने पर उसे वास्तविक कारण बता देना चाहिए । किन्तु हीन जाति का व्यक्ति ऐसा तभी कर सकता है जब कि स्वामी (जिसका सामान वह बिना कहे उठा लेता है) पापी हो और अपनी जाति के धर्म का पालन नहीं करता हो। व्यास (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १७५) ने आपत्ति के समय भोजन के लिए चोरी करना अपराध नहीं माना है, किन्तु यह चोरी प्रथमतः अपने से किसी हीन जाति वाले के यहाँ, तब बराबर वाले के यहाँ और अन्त में अपने से उच्च-जाति के यहाँ की जा सकती है। मनु (८।३४१, मत्स्यपुराण २२७।११०,११४), नारद (प्रकीर्णक ३६), शंख एवं कात्यायन (८२२ क) के मत में भोजन कम पड़ जाने पर यानी द्वारा बिना मांगे किसी के खेत से दो ईखों, दो मलियों, दो तरबूजों (तरबूज), पाँच आमों या दाडिमों, एक मुट्ठी खजूर, बेर या चावल या गेहूँ या चना ले लेना अपराध नहीं माना गया है।
साहस (गुंडई, लूट-मार, डाका) मन (८।३२२), कौटिल्य (३।१७), नारद (१७।१), याज्ञ० (२।२३०) एवं कात्यायन (७६५-७६६) ने साहस५ को ऐसा कर्म माना है जो राजकर्मचारियों या रक्षकों या अन्य लोगों की उपस्थिति में भी बलपूर्वक किया जाय। 'साहस' शब्द साहस' अर्थात् बल (नारद १७११) से निकला है। कभी-कभी साहस स्तेय से पृथक् माना जाता है (मनु ८३३२, कौटिल्य ३।१७ एवं नारद १७/१२), क्योंकि स्तेय (चोरी) बिना बल प्रयोग किये गप्त रूप से किसी का धन ले लेना है। और साहस में बल या हिंसा का प्रयोग निहित है। साहस के चार प्रकार हैं--मनुष्यमारण, चौर्य (चोरी), परदाराभिमर्शन (दूसरे की स्त्री को छीन लेना) एवं पारुष्य (इसके दो प्रकार है) देखिये बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३१२ एवं व्यवहारप्रकाश पृ० ३६२), नारद (१७३२) आदि । साहस करने वाले को चोरों आदि की
४. तिलमुद्गमाषयवगोधूमादीनां सस्यमुष्टि ग्रहणेषु न दोषः पथिकानाम् । शंख (स्मृतिचन्द्रिका १, १० १७६); त्रपुषे वारुके द्वे तु पञ्चाम्र पञ्चदाडिमम् । खजूरबदरादीनां मुष्टिं ग्रन्न दुष्यति ।। बृह० एवं कात्या० (गहस्थरत्नाकर ५० ५२०); चणकव्रीहिगोधूमयवानां मुदगमाषयोः । अनिषिद्धग्रहीतव्यो मुष्टिरेकः पथि स्थितैः॥ मिताक्षरा (याज० २।२७५) ।
५. स्यात्साहसं त्वन्ययवत् प्रसभं कर्म यत्कृतम् । निरन्वयं भवेत्स्तेयं हत्वापव्ययते च यत् ॥ मनु (८।३३२); साहसमन्वयवत् प्रसभकर्म । निरन्वये स्तेयमपव्ययने च । अर्थशास्त्र (३।१७); सहसा क्रियते कर्म यत्किञ्चिद् बलपितः । तत्साहसमिति प्रोक्तं सहो बलमिहोच्यते ॥ नारद (१७३१); सहसा यत्कृतं कर्म तत्साहसमुदाहृतम् । सान्ववस्त्वपहारो यः प्रसह्य हरणं च यत् ॥ साहसं च भवेदेवं स्तेयमुक्तं विनिहवे ॥ कात्या० १६५-७६६ (सरस्वतीविलास, पृ० ४५१, ४५७; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३१६ एवं विवादरत्नाकर पृ० २८७। स्मृतिचन्द्रिका (२,१० ३१६)में आया है--अन्वयो रक्षणकालक्रमप्राप्तपालकनरनैरन्तयं, तस्मिन् सति योऽपहारः स सान्ययोऽपहारः।
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